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यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ।।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ।।

कर्मणरू सुकृतस्याहुरू सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुरूखमज्ञानं तमसरू फलम् ।।

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ।।
अर्थ जिस समय सत्वगुण बढ़ा हो, उस समय यदि मनुष्य मर जाता है तो वह उत्तम वेताओं के निर्मल लोकों में जाता है। रजोगुण के बढ़ने पर मरने वाला प्राणी कर्म संगी मनुष्य योनी में जन्म लेता है तथा तमोगुण के बढ़ने पर मरने वाला मूढ़ योनियों में जन्म लेता है। शुभ कर्म का तो सात्विक निर्मल फल कहा है। राजस कर्म का फल दुःख कहा है और तामस कर्म का फल अज्ञान (मूढ़ता) कहा है। सत्वगुण से ज्ञान और रजोगुण से लोभ ही उत्पन्न होते हैं। तमोगुण से प्रमाद, मोह एवं अज्ञान भी उत्पन्न होते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 14-17 सत्वगुण बढ़ा हुआ मनुष्य ज्ञान और सुख में जीता हुआ यदि देह त्याग करता है तो ऐसा मनुष्य उत्तम लोक को प्राप्त होता है। यानि स्वर्ग आदि में जाता है और यदि सब कुछ प्राप्त करने की दौड़ में दौड़ता हुआ रजोगुणी मनुष्य जब मृत्युकाल को प्राप्त होता है तो वह पुनः धरती पर प्रबल इच्छा वाला शरीर धारण करता है और तमोगुणी मनुष्य जब मृत्यु प्राप्त करता है तो अधोगति जैसे पशु, कीट, कीड़ा, सर्प बनकर जन्म लेता है। अच्छे कर्मों वाला मनुष्य सात्विक होता है, सुख, ज्ञान प्राप्त करता है। राजस कर्मों का फल दुख, पीड़ा तथा संताप होता है और तमस के अज्ञान का फल अधोगति है। 
अब इस प्रकृति की माया को समझने के बाद तीनों गुणों के प्रभाव तथा परिणाम जानने के बाद व्यक्ति के मन में सवाल आता है कि इन गुणों के प्रभाव के साथ सन्तुलन कैसे स्थापित करें? क्या इन गुणों से भी पार जाया जा सकता है? और अगर जाया जा सकता है तो कैसे? मुक्ति किस प्रकार सम्भव है? गुणों के अन्दर संतुलन स्थापित कर लेने से या तीनों गुणों से ही पार निकल जाने से मुक्ति मिलती है?
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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