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सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ।।

लोभरू प्रवृत्तिरारम्भरू कर्मणामशमरू स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ।।

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।।
अर्थ जब इस मनुष्य शरीर में सब द्वारों में प्रकाश और विवेक प्रकट हो जाता है, तब यह जानना चाहिए कि सत्वगुण बढ़ा हुआ है। हे भरतवंश में श्रेष्ठ अर्जुन ! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृति, कर्मों का आरम्भ, अशांति और भोगों की लालसा ये वृतियाँ पैदा होती हैं। हे कुरूनन्दन ! तमोगुण के बढ़ने पर अप्रकाश, अप्रवृति तथा प्रमाद और मोह ये वृतियाँ पैदा होती हैं। व्याख्यागीता अध्याय 14 का श्लोक 11-13 ये गुण घटते बढ़ते रहते हैं, जब कोई गुण बढ़े तो आपको ऐसा समझना चाहिए, जिस समय आपके भीतर ज्ञान रूपी प्रकाश का आगमन होता है, चेतना जागृत होती है, हृदय निर्मल बन जाता है, मन प्रफुल्लित होकर भक्तिमय बन जाता है। आप साधक बनने लगते हैं सत्य सनातन ॐ की ध्वनि नाद भीतर में बजने लगता है। बुद्धि, विवेक बढ़ जाते हैं। ईश्वरीय भाव के साथ मनुष्य सर्वहित की सोचने लगता है तो समझ लेना चाहिए सत्तोगुण बढ़ा है।
दूसरी तरफ लोभ, लालच, स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, असन्तोष संसारिक विषयों की तरफ आकर्षण बढ़ जाता है। अर्थात् संसारिक वस्तुओं का मोह जकड़ रहा है, मन राग-रंग में डूबना चाहता हैं। पद-प्रतिष्ठा, मान-बड़ाई, धन-दौलत पाने की इच्छा प्रबल हुई जा रही है तो समझ लो रजोगुण बढ़ रहा है।
आलस्य बढ़ रहा है, निंद्रा प्रमाद में पड़े रहने को मन करता है। सोते रहते हैं। ऐश्वर्य के स्वप्न ले रहा है दूसरों की सफलता से ईर्ष्या हो रही है, कुंठा बढ़ रही है प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति में गलतियाँ निकल रही है। तो समझे तमस बढ़ रहा है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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