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अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।

इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।

असक्तिरनभिष्वंगरू पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।।
अर्थ अपने में श्रेष्ठता का भाव न होना, दिखावटीपन न होना, अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरू की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि, स्थिरता और मन का वश में होना। इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य का होना, अहंकार का भी न होना और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा व्याधियों में दुख-रूप दोषों को बार-बार देखना। आसक्ति रहित होना, पुत्र, स्त्री, घर आदि में एकात्मता न होना और अनुकूलता-प्रतिकूलता की प्राप्ति में चित का नित्य सम रहना। मुझमें अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन-समुदाय में प्रीति का न होना। अध्यात्म ज्ञान में नित्य-निरन्तर रहना, तत्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना, यह सब ज्ञान है और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 7-11 - Geeta 13.7-11 1.    श्रेष्ठत के अहंकार का त्याग
2.    दिखावटी पन ना होना
3.    अहिंसा ना करना
4.    क्षमाभाव रखना अपने भीतर
5.    मन, वाणी, शरीर में सरलता रखना
6.    गुरू, आचार्य की सेवा करना
7.    मन, बुद्धि, आत्मा को शुद्ध रखना
8.    सम साधना ध्यान योग में स्थिर रहना
9.    अतः करण को वश में रखना
10.    इन्द्रियों के विषयों (रस, रूप, शब्द, स्पर्श, गन्ध) में वैराग्य होना
11.    किसी भी प्रकार का अहंकार ना होना
12.    जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था में दुख-सुख दोषों को बार-बार देखना
13.    सम्पूर्ण आसक्तियों का त्याग कर देना
14.    पुत्र, स्त्री, घर, धन, आदि में मोह ना होना
15.    कोई भी परिस्थिती आए विपरीत या अपने पक्ष में उस वक्त मन को सम (स्थिर) रखना
16.    मुझमें अनन्य योग (अन्य और किसी का चिन्तन मनन ना करना) के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना अर्थात् एक परमेश्वर को ही अपना स्वामी मानते हुए, सम्पूर्ण संसार की इच्छा त्याग कर, श्रद्धा और प्रेम भाव से परम प्रभु का निरंतर (हर पल) चिन्तन, मनन, ध्यान साधना करना अव्यभिचारिणी भक्ति है।
17.    एकांत स्थान (अकेले में) रहने का स्वभाव होना
18.    विषयों में इच्छा रखने वाले मनुष्यों में प्रेम नहीं रखना चाहिए।
19.    आध्यात्म ज्ञान (निर्गुण निराकार परम आत्मा का ज्ञान ही आध्यात्म ज्ञान होता है) ध्यान में सम साधना से आत्मा को परम में युक्त रखना हर रोज हर पल।
20.    कण-कण में तत्वज्ञान के द्वारा सब जगह परमात्मा को देखना आत्म बोध।
यह बीस प्रकार के साधन परमेश्वर तक पहुँचाने वाले हैं, इन बीस साधनों को ज्ञान कहा गया है। इससे जो विपरीत है वह अज्ञान है, यह सब जान कर अपने आचरण में लाना परम ज्ञान है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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