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महाभूतान्यहङ्कारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः।।

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।
अर्थ प्रकृति और बुद्धि, अहंकार पाँच महाभूत और दस इन्द्रियां, एक मन तथा पाँचों इन्द्रियों के विषय यह चौबीस तत्वों वाला क्षेत्र है। इच्छा-द्वेष, सुख-दुख, शरीर, चेतना और धृति इन विकारों सहित यह क्षेत्र विस्तार से कहा गया। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 5-6 - Geeta 13.5-6 पाँच महाभूत:  भूमि, गगन, वायु, अग्नि, नीर।
पाँच कर्म इन्द्रियाँ:  आँख, कान, नाक, जीव्हा, त्वचा।
पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ:  जो पाँच कर्म इन्द्रियाँ है आँख, कान आदि उनके भोगों से जो सुख ज्ञान मिलता है भीतर वह मन तक ज्ञान इन्द्रियों से पहुँचता है।
पाँच इन्द्रियों के विषय:  शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध।
मूल प्रकृति:  सत्य, रज, तम, गुण वाली प्रकृति
अहंकार:  मैं का भाव
बुद्धि:  विवेक
मन:   जीव
यह जो चौबीस तत्वों से देह बनती है, इस देह के भीतर कृष्ण कहते हैं इच्छा-द्वेष, सुख-दुख, चेतना और धृति होती इन विकारों सहित यह शरीर विस्तार से बताया गया है। 
कृष्ण कहते हैं चेतना और धृति भी क्षेत्र है, बहुत बड़ी बात है लेकिन हम सारी उम्र गीता पढ़ते रहते हैं लेकिन हमें कभी ख्याल ही नहीं आता कि गीता में कितनी क्राँति की बातें हैं, हम पढ़ते हैं गीता को मुर्दे की तरह, हमें ख्याल ही नहीं आता कि कृष्ण क्या कह रहे हैं। यह जो चेतना है पदार्थों के संबंध में आपके भीतर पैदा होती है, यह चेतना विषयों से जुड़ी हुई है और विषयों के साथ ही खो जाती है यह भी क्षेत्र है तुम इस सतर्कता (सावधानी)को यानि चेतना को भी अपनी आत्मा मत मान लेना यह चेतना भी बाहर के पदार्थ की चेतना है, जब तुम इस से भी उपर उठोगे तो तुम्हें अनुभव होगा कि वास्तविक क्षेत्रज्ञ क्या है।
कृष्ण कहते न तो मैं चेतनता, न धृति, धृति का अर्थ होता है ध्यान, धारणा यह भी क्षेत्र है। आखरी शांति तो उस क्षण घटित होती है जब आपको भी पता नहीं चलता कि मैं शांत हूँ। अशांति का तो पता ही नहीं चलता और ना ही शांति का पता चलता, वह जो परम शांति है वह चेतना भीतर की है, जब तक शांति-अशांति का पता चलता है वह चेतना बाहर की है यानि वह चेतना बस्ती की है। जब कोई सारे क्षेत्र के पार हो जाता है तो क्षेत्रज्ञ का अनुभव होता है। 
शरीर को क्षेत्र कहने का मतलब है जैसे खेत में तरह-तरह के बीज डालकर खेती की जाती है। ऐसे ही मनुष्य इस शरीर से अच्छे बुरे कर्म करता है वह इस क्षेत्र में बोये हुए बीज है। जिस प्रकार खेत में बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है। उसी प्रकार इस शरीर से जैसे कर्म किये जाते हैं, उसके अनुसार ही अगला शरीर और फल मिलते हैं। इस क्षेत्र (शरीर) से जैसे कर्म करता है उन कर्मों के अनुसार ही जीव बार-बार जन्म-मरण का फल भोगता है। जीव इस शरीर को कभी मैं कहता है कभी मेरा शरीर कह देता है। शरीर के साथ मैं पन मान लेने से इच्छा, द्वेष, सुखदुख, आदि विकार पैदा होते हैं, इसलिए भगवान शरीर के साथ मोह, अहंकार आदि मिटाने के लिए ज्ञान के आवश्यक बीस साधन बताते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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