ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चतैः।।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चतैः।।
अर्थ ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से गाया गया है तथा वेदों की रचनाओं द्वारा बहुत प्रकार से विभागपूर्वक कहा गया है और युक्तियुक्त एवं निश्चिय किए हुए ब्रह्मसूत्र के पदों द्वारा भी कहा गया है।
व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 4 - Geeta 13.4
श्री कृष्ण कहते हैं वेद या उपनिषद या ब्रम्हसूत्र या ऋषि मुनि हुए हैं, उन सब ने भी अनेक-अनेक प्रकार से इस क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को कहा, उनके कहने के ढंग में, शब्दों में भेद है परन्तु वह जिस तरफ इशारा करते हैं वह एक है, जैसे किसी पहाड़ पर जाने के लिए रास्ते बहुत होते हैं, परन्तु कोई कहे कि यही रास्ता चोटी तक पहुँचा सकता है वाद विवाद करते रहे तो शायद कोई भी नहीं पहुँच सकता। करीब-करीब ऐसी ही हमारी हालत है सब धर्मों के अब यही झगड़े हैं कि हमारा ज्ञान ही श्रेष्ठ है, पहाड़ पर चढना ही भूल जाते हैं और लड़ाई में ही जीवन व्यतीत कर देते है। कोई पहाड़ पर चढ़ कर देखे तो ही पता लगे कि पहाड़ी पर चढ़ने के रास्ते अनेक हैं लेकिन यह चोटी पर चढ़कर ही दिखाई देता है, नीचे से तो अपना रस्ता ही दिखाई पड़ता है, चोटी से सभी रास्ते दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण जो ज्ञान दे रहे हैं यह चोटी पर खड़े व्यक्ति की वाणी है, वे कह रहे हैं वेद, ब्रम्हसुत्र, ऋषियों ने एक ही तत्व की बात कही है, शब्दों को समझने में फर्क है। इस ज्ञान को अब से पहले ऋषियों के द्वारा बहुत विस्तार से कहा गया है इस ज्ञान को जड़-चेतन, शरीर-शरीरी, देह-देही, नित्य-अनित्य, शरीर-आत्मा, आदि अलग-अलग शब्दों में क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के ज्ञान का वर्णन विस्तार से किया गया है।