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यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्।।
अर्थ हे अर्जुन ! जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करती हैं। इस प्रकार जो ज्ञानरूपी नेत्रों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के विभाग को तथा कार्य कारण सहित प्रकृति से स्वयं को अलग जानते हैं, वे परम को प्राप्त हो जाते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 33-34 - Geeta 13.33-34 जैसे एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करता है ऐसे ही एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीर) को प्रकाशित करता है।
सृष्टि तो उत्पन्न और नष्ट होती रहती है, परम सत्ता ज्यांे की त्यों रहती है। वह सम्पूर्ण शरीर के बाहर-भीतर सर्वत्र दिशाओं में परिपूर्ण है। वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है। वही परमात्मा है, वही योगियों का योग और ज्ञानियों का ज्ञान व भक्तों का भगवान है।
इस प्रकार जो ज्ञान रूपी नेत्रों से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के विभाग को और प्रकृति के कार्य करण सहित अपने को अलग जानते हैं, वे परम को प्राप्त होते हैं।
शरीर, मन, आत्मा के विभाग का ज्ञान विवेक कहलाता है, जो व्यक्ति अपने विवेक बुद्धि से शरीर और आत्मा के ज्ञान को अच्छे से जान लेता है, वह परमात्मा तत्व को प्राप्त हो जाता है।
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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