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यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।।
अर्थ जैसे सब जगह व्याप्त आकाश अत्यन्त सूक्ष्म होने से कहीं भी लिप्त नहीं होता, ऐसे ही सब जगह परिपूर्ण आत्मा किसी भी देह में लिप्त नहीं होती। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 32 - Geeta 13.32 जैसे आकाश में कभी सूर्य का प्रकाश फैल जाता है। कभी अँधेरा छा जाता है कभी धुंध छा जाती है कभी काले काले बादल छा जाते हैं। कभी बादल गर्जते हैं और बिजली कड़कती है। कभी वर्षा होती है, आग जलाए चाहे रंग उछाले, कभी बादलों में बने बादल के हाथी घोड़े नगरी हवा के एक झोंके से बिखर जाते हैं। आकाश में कुछ भी हो चाहे उस होने से आकाश पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आकाश हमेशा निर्लेप निर्विकार रहता है। जैसे आकाश वायु से लिप्त नहीं होता, ऐसे ही आत्मा किसी शरीर से लिप्त नहीं होती, आत्मा सबमें परिपूर्ण रहते हुए भी किसी में घुलती मिलती नहीं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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