अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते।।
अर्थ हे कुन्तीनन्दन ! यह अनादि होने से और गुणों से रहित होने से अविनाशी परमात्म स्वरूप ही है। यह शरीर में रहता हुआ भी न करता है और न लिप्त होता है।
व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 31 - Geeta 13.31
जैसे हम कमरे में रहते हुए भी हम कमरे से अलग हैं, ऐसे ही आत्मा शरीर में रहते हुए भी हम शरीर से अलग हैं, यह आत्मा गुणों से रहित होने से, अविनाशी परम आत्मा ही है यह आत्मा शरीर में रहते हुए भी ना कुछ करती है और ना ही किसी से लिप्त होती है।
जैसे थियेटर के परदे पर कितनी भी मूवी बदलती रहे या मूवी में कितनी भी गोलियाँ चले आग लगे, बारिश हो, कोई बिछड़े या मिले उन सब बातों से परदे पर फर्क नहीं पड़ता। परदा अपनी जगह स्थिर और निर्लेप रहता है। मूवी चलती रहती है परदा सम रहता है ऐसे ही परम परदे पर ब्रह्म मूवी चल रही है। इस ब्रह्म मूवी में कोई मरे-जन्में सुख-दुख भोगे, परम परदा उस नाटक से लिप्त नहीं होता।
जैसे थियेटर के परदे पर कितनी भी मूवी बदलती रहे या मूवी में कितनी भी गोलियाँ चले आग लगे, बारिश हो, कोई बिछड़े या मिले उन सब बातों से परदे पर फर्क नहीं पड़ता। परदा अपनी जगह स्थिर और निर्लेप रहता है। मूवी चलती रहती है परदा सम रहता है ऐसे ही परम परदे पर ब्रह्म मूवी चल रही है। इस ब्रह्म मूवी में कोई मरे-जन्में सुख-दुख भोगे, परम परदा उस नाटक से लिप्त नहीं होता।