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प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा।।
अर्थ जो सम्पूर्ण क्रियाओं को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही होते हुए देखता है, और अपने आपको अकर्त्ता देखता है (अनुभव करता) वही यथार्थ देखता है। जिस काल में साधक प्राणियों के अलग-अलग भावों को एक प्रकृति में ही स्थित देखता है और उस प्रकृति से ही उन सबका विस्तार देखता है, उस काल में वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 29-30 - Geeta 13.29-30 जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वह सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृति विभाग में ही होती हैं जैसे खाना-पीना, चलना-दौड़ना, उठना-बैठना, घटना-बढ़ना, सोना-जागना आदि जो कुछ क्रियाएँ हैं वे सभी प्रकृति द्वारा ही होती है, स्वयं यानि अपना स्वरूप आत्मा में नहीं होती, अपने आप को अकर्ता देखता है वही सत्य देखता है। 
जिस पल में यह मनुष्य सब भूतों के (प्राणियों के) अलग-अलग भाव को एक परम में स्थित देखता है और उस परम आत्मा से ही सम्पूर्ण संसार का विस्तार देखता है। उसी क्षण वह परम धाम को प्राप्त हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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