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समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।
अर्थ क्योंकि सब जगह समरूप से स्थित ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य अपने-आप से अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिए वह परम गति को प्राप्त हो जाता है। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 28 - Geeta 13.28 सब जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, आदमी-औरत जितने भी स्थावर जगम प्राणी है और दसों दिशाओं में समरूप से सबके भीतर बाहर एक परम ईश्वर को समरूप से देखने वाला मनुष्य कभी भी अपनी आत्मा से अपनी आत्मा (जब जीवों की आत्मा ही अपनी आत्मा है सम्पूर्ण लोगों की आत्मा ही परम आत्मा है) की हिंसा नहीं करता, इसलिए वह योगी देह त्याग के बाद परम गति को प्राप्त हो जाता है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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