ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे।।
अर्थ कई मनुष्य ध्यान के योग द्वारा, कई सांख्ययोग के द्वारा और कई कर्म योग के द्वारा अपने आपसे, अपने आप में परमात्मा तत्त्व का अनुभव करते हैं।
व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 24 - Geeta 13.24
अपने आप से अपने आप में अर्थात् अपने आप का मतलब है कि उस व्यक्ति को गुरू, आचार्य, आदि की जरूरत नहीं पड़ती, मनुष्य तीन प्रकार से परमात्मा को अपने आप में महसूस कर लेता है (ध्यानयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग)
ध्यानयोग: शरीर और आत्मा को अलग-अलग जानने के लिए ध्यानयोग जरूरी होता है। जिस अवस्था में चित शून्य हो जाता है। वह अवस्था समाधि है। चित जब संसार, शरीर अपने पराये के मोह के चिन्तन से उपरत हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपने आपसे अपने आपमें अपना (आत्मा का) अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है। (ध्यानयोग अच्छे से देख अध्याय नं. 6 के श्लोक नं. 11 से 32 तक)
सांख्ययोग: ज्ञानयोग नाम विवेक का है, उस विवेक के द्वारा शरीर-आत्मा का अलग-अलग निर्णय हो जाता है। परम सर्वत्र है, स्थिर है, अचर है, अव्यक्त है, ऐसे विवेक विचार से सांख्ययोग प्रकृति के कार्य और गुणों से बिल्कुल अलग हो जाता है और अपने आप से अपने आपमें आत्मा को महसूस करता है (सांख्ययोग के लिए अध्याय 2 के श्लोक नं. 11 से 30 तक पढ़ें)।
कर्मयोग: कर्मयोगी जो भी कर्म करें वह अपनी ‘मैं’ अहंकार को त्यागकर अपने सम्पूर्ण जीवन को परमात्मा के अर्पण करके संसार के हित के लिए ही कर्म करें, अपने लिए नहीं ऐसे करने से स्वयं का शरीर और संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और अपने आपसे अपने आप में परम आत्मा का अनुभव हो जाता है। (कर्मयोग जानने के लिए अध्याय 2 के श्लोक नं. 48 से लास्ट तक पढ़ें)
ध्यानयोग: शरीर और आत्मा को अलग-अलग जानने के लिए ध्यानयोग जरूरी होता है। जिस अवस्था में चित शून्य हो जाता है। वह अवस्था समाधि है। चित जब संसार, शरीर अपने पराये के मोह के चिन्तन से उपरत हो जाता है। उस समय ध्यानयोगी अपने आपसे अपने आपमें अपना (आत्मा का) अनुभव करके सन्तुष्ट हो जाता है। (ध्यानयोग अच्छे से देख अध्याय नं. 6 के श्लोक नं. 11 से 32 तक)
सांख्ययोग: ज्ञानयोग नाम विवेक का है, उस विवेक के द्वारा शरीर-आत्मा का अलग-अलग निर्णय हो जाता है। परम सर्वत्र है, स्थिर है, अचर है, अव्यक्त है, ऐसे विवेक विचार से सांख्ययोग प्रकृति के कार्य और गुणों से बिल्कुल अलग हो जाता है और अपने आप से अपने आपमें आत्मा को महसूस करता है (सांख्ययोग के लिए अध्याय 2 के श्लोक नं. 11 से 30 तक पढ़ें)।
कर्मयोग: कर्मयोगी जो भी कर्म करें वह अपनी ‘मैं’ अहंकार को त्यागकर अपने सम्पूर्ण जीवन को परमात्मा के अर्पण करके संसार के हित के लिए ही कर्म करें, अपने लिए नहीं ऐसे करने से स्वयं का शरीर और संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और अपने आपसे अपने आप में परम आत्मा का अनुभव हो जाता है। (कर्मयोग जानने के लिए अध्याय 2 के श्लोक नं. 48 से लास्ट तक पढ़ें)