पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु।।
अर्थ प्रकृति में स्थित पुरूष ही प्रकृति जन्य गुणों का भोक्ता बनता है और गुणों का संग इसके ऊँच नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है।
व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 21 - Geeta 13.21
प्रकृति में स्थित पुरूष (जीव) ही प्रकृति के गुणों (सत्व, रज, तम) का भोक्ता बनता है। प्रकृति के गुणों का ‘भोग इच्छा’ करना ही जीव को आगे के जन्मों में ऊँच-नीच योनियों में जन्म दिलाती है। अर्थात् प्रकृति के भोग और गुणों का संग करने से पुरूष आगे से आगे छोटी बड़ी जूणी को प्राप्त करते हैं। मेरा परिवार, मेरा धन, मेरा घर, मेरी जमीन जायदाद, वस्तु, व्यक्ति और क्रियाओं के साथ सम्बन्ध जोड़ना ही गुणसंग होता है। यह संसार की आसक्तियाँ ही जन्म मरण का बन्धन है। पुत्र, पिता, पत्नी यह सम्बन्ध आपके लिए कर्त्तव्य का पालन निभाने के लिए हैं। मोह, ममता करने के लिए नहीं।