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क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
अर्थ हे भारत तू सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और क्षेत्र क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है वही मेरे मत में ज्ञान है। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 2 - Geeta 13.2 श्री भगवान कहते हैं हे भारत, जो ऐसा समझता है खुद को क्षेत्रज्ञ और शरीर को क्षेत्र ऐसे तत्व से जानने वाले को ज्ञानी कहते हैं, और अर्जुन तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का ज्ञान है वह मेरे मत में ज्ञान है। जिस दिन यह ज्ञान होगा कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ उस दिन यह भी ज्ञान होगा कि आत्मा सभी के भीतर एक है। इस ज्ञान को ऐसे समझें कि जैसे बहुत सारे घड़े सागर में रख दिये हो और सभी घड़ों में पानी भर जाएगा, घड़ों के बाहर भी सागर है और भीतर भी सागर है, लेकिन जो घड़ा अपने को मिट्टी की देह समझता हो उसे पड़ोस में रखा हुआ घड़ा दूसरा मालूम पड़ेगा, लेकिन जिस घड़े को अनुभव हो जाए भीतर भरा हुआ जल मैं हूँ सब के भीतर जल अलग-अलग नहीं है जल तो सबके भीतर एक ही है। ऐसे ही मिट्टी के बने दीये अलग-अलग रह जाते हैं, उनके भीतर प्रकाश तो एक ही है, जैसे ही ज्ञान होता है कि मैं शरीर नहीं हूँ वैसे ही ज्ञान हो जाता है सभी के भीतर आत्मा एक ही है। कृष्ण कहते हैं सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मुझे ही समझ और यह शरीर आत्मा का ज्ञान है वही मेरे मत में ज्ञान है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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