प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।
अर्थ प्रकृति और पुरूष दोनों को ही तुम अनादि समझो और विकारों को तथा गुणों को भी प्रकृति से ही उत्पन्न समझो। कार्य और कारण के द्वारा होने वाली क्रियाओं को उत्पन्न करने में प्रकृति हेतु कही जाती है और सुख-दुख के भोक्तापन में पुरूष हेतु कहा जाता है।
व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 19-20 - Geeta 13.19-20
प्रकृति और पुरूष दोनों ही तुम अनादि समझो।
प्रकृति: आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी, जल और इस प्रकृति के कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध यह प्रकृति है।
पुरूष: पाँच कर्म इन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीव्हा, त्वचा)
पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ जो कर्म इन्द्रियों से बुद्धि, मन को ज्ञान करती है और मन, बुद्धि, अहंकार यह पुरूष है।
विकारों को तथा त्रिगुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न समझो। कार्य (प्रकृति) और करण (पुरूष) की क्रियाओं को उत्पन्न करने में हेतू प्रकृति कही जाती है। सुख-दुख के भोक्तापन में पुरूष हेतू कहा जाता है।
प्रकृति: आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी, जल और इस प्रकृति के कार्य शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध यह प्रकृति है।
पुरूष: पाँच कर्म इन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीव्हा, त्वचा)
पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ जो कर्म इन्द्रियों से बुद्धि, मन को ज्ञान करती है और मन, बुद्धि, अहंकार यह पुरूष है।
विकारों को तथा त्रिगुणों को भी प्रकृति से उत्पन्न समझो। कार्य (प्रकृति) और करण (पुरूष) की क्रियाओं को उत्पन्न करने में हेतू प्रकृति कही जाती है। सुख-दुख के भोक्तापन में पुरूष हेतू कहा जाता है।