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सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।।
अर्थ वे सम्पूर्ण इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करने वाले हैं। आसक्ति रहित हैं और सम्पूर्ण संसार का भरण-पोषण करने वाले हैं तथा गुणों से रहित हैं और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता हैं। वे सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर और चर-अचर भी एवं दूर से दूर तथा नजदीक से नजदीक भी और वे अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने में नहीं आते। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 14-15 इन्द्रियों से बने शरीर में वास होने पर भी परमात्मा इन्द्रियों के विषयों से रहित है और सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को (रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श) को प्रकाशित करने वाले परमात्मा ही है। सम्पूर्ण आसक्ति रहित है और सब प्राणियों के भरण-पोषण करने वाले है। परमात्मा प्रकृति के तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) से अलग है और सम्पूर्ण गुणों के भोक्ता है।
वे तत्व परम प्रभु सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर सर्वत्र है और चर-अचर प्राणियों के रूप में एक परमात्मा ही है, जहाँ तक आपकी नजर जाये वहाँ तक और दूर से दूर अनन्त परम ही है और नजदीक से नजदीक एक परम ईश्वर ही है। वह अत्यन्त सूक्ष्म यानि अणु से भी छोटा परमाणु से भी छोटा होने से अपनी आँखों के देखने में नहीं आते।
जैसे पानी के भरे घड़े को सागर में रख दिया जाए तो उस घड़े के भीतर भी पानी है और बाहर भी पानी ही पानी है। ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर भीतर परमात्मा है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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