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सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।
अर्थ वे सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों और मुखों वाले तथा सब जगह कानों वाले है। वे संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 13 सोने के बने कड़ा, कण्डी, हार, अंगूठी, अलग-अलग रूप होते हुए सब में सोना ही है।
लोहे के बने औजार, अस्त्र शस्त्र, खिड़की सब लोहा ही है।
मिट्टी से बने मूर्ति, घर, बाजार आदि सब मिट्टी ही है।
ऐसे ही वे परमात्मा सब जगह हाथों और पैरों वाले, सब जगह नेत्रों, सिरों, मुखों वाले और सब जगह कानों वाले परम प्रभु सम्पूर्ण संसार को व्याप्त करके स्थिर है। (अचल है) संसार में अलग-अलग रूप नजर आ रहे हैं, यह सब परमात्मा ही है, सम्पूर्ण प्राणी अपनी अलग सत्ता मान लेते हैं अज्ञान के कारण, और वह अज्ञान ही जीव को जन्म मरण में डालता है।
भगवान कहते हैं कि सृष्टि से पहले भी मैं ही विद्यमान था, मेरे सिवाय और कुछ भी नहीं था। और सृष्टि उत्पन्न होने के बाद जो कुछ भी यह संसार दिखता है, वह भी मैं हूँ और सृष्टि का विनाश होने के बाद भी मैं यहीं स्थित रहता हूँ। परम सत्ता एक ही है द्वन्द्वों में उलझे रहने के कारण उसका ज्ञान नहीं होता, संसारी व्यक्ति को जैसे बाहर-भीतर सब जगह संसार ही संसार नजर आता है ऐसे ही तत्वज्ञानी को सब जगह परमात्मा ही परमात्मा नजर आते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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