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ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते।।
अर्थ जो ज्ञेय है उसको मैं अच्छी तरह से कहूँगा, जिसको जानकर अमरता का अनुभव कर लेता है। अनादिवाला और परम ब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न ही असत्। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 12 ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय इन तीनों को अच्छी प्रकार जानने से ज्ञान समझ आता है, जैसे यह सम्पूर्ण संसार आपको दिखाई दे रहा है पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, मानव, नदियाँ, पहाड़, चन्द्रमा, सूर्य आदि यह सम्पूर्ण दृश्य ज्ञेय होता है, यह सारा संसार आपके भीतर बैठा जीव देख रहा है वह जीव ज्ञाता होता है, दृश्य जो है वह आँखों से देखा जाता है यह आँख ज्ञान है। इसको दृश्य, दर्शन, दृष्टा भी कहते हैं और ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय भी कहते हैं। यह सम्पूर्ण ज्ञेय (दृश्य संसार) जानने योग्य ज्ञान है, भगवान कहते हैं अर्जुन को कि इस परम तत्व को मैं अच्छी प्रकार कहूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है।
यह अनादि परम ब्रह्म है इसको ना सत् कहा जाता है और ना ही असत् कहा जाता है। जैसे पीछे के अध्याय में भगवान ने कहा कि असत् की यहाँ सत्ता नहीं और सत् का अभाव (कमी) नहीं।
जैसे यह संसार असत् कहा जाता है और इस संसार के कण-कण में परम है तो यह सत् है जो दिखाई दे रहा है। ज्ञेय इस माया को असत् कहा जाता है और सम्पूर्ण संसार जिस परम में व्याप्त है, उसको सत् कहा जाता है लेकिन आत्मज्ञान हो जाने पर ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय एक ही हो जाते हैं।
जैसे सूर्य में रात और दिन दोनों में भेद नहीं होता, क्योंकि दिन शब्द का प्रयोग रात की कमी से किया जाता है। अगर रात की सत्ता ना रहे तो ना दिन कह सकते हैं ना रात बस सूर्य है। परमात्मा सत् भी है असत् भी है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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