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श्री भगवानुवाच
इदं शरीरंकौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्तितं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।
अर्थ हे कौन्तेय ! यह रूप से कहे जाने वाले शरीर को क्षेत्र नाम से कहते हैं और इस क्षेत्र को जो जानता है, उसको ज्ञानी लोग क्षेत्रज्ञ नाम से कहते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 13 का श्लोक 1 शरीर क्षेत्र है जहाँ घटनाएँ घटती हैं और तू क्षेत्रज्ञ हो जो घटनाओं को जानता है, गीता हम समझते रहते हैं, लोग गीता समझाते रहते हैं, समझाने वाले कहते हैं कि क्षेत्र अलग है क्षेत्रज्ञ अलग है और हम सुन लेते हैं और मान लेते हैं कि शायद अलग ही होगा, लेकिन जब तक आपको यह अनुभव ना हो जाए तब तक सुनने का कोई फायदा नहीं, इस अनुभव का थोड़ा प्रयोग करें।
जब आप खाना खाते हो तब महसूस करें, सम होकर समझे कि भोजन शरीर में डाल रहें हैं आप भोजन करने वाले नहीं देखने वाले हैं, जब चलते हो तब समझें शरीर चल रहा है आप देख रहे हो, कभी शरीर के चोट लगे तब ध्यान करें कि चोट शरीर के लगी है मैं देखने वाला हूँ, जब भी आप सफल या असफल हो तो देखें शरीर सफल हुआ है। जब भी फूल बरसे या गालियां मिले देखना यह शरीर को मिल रही हैं, मैं अलग हूँ। 
ऐसे छोटे-छोटे प्रयोग करते रहें, आपको पता है एक-एक बूँद से सागर बन जाता है, एक-एक ईंट से महल बन जाता है, एक-एक कदम चलने से मीलांे के सफर की यात्रा हो जाती है। ऐसे ही छोटे प्रयासों से सभी अनुभव जुड़ते जाते हैं उनका सार इकट्ठा हो जाता है धीरे-धीरे यह अनुभव आपको परम बोध तक पहुँचा देगा, इन अनुभव से आपके भीतर एक केंद्र बन जाता है फिर बिना प्रयास के आप देख पाते हो कि यह शरीर अलग है और मैं अलग हूँ।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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