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न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम्।।
अर्थ तू इस अपनी आँख से मुझे देख ही नहीं सकता इसलिए मैं तुझे दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तू मेरे ऐश्वर्य योग को देख। संजय बोले - हे राजन ! ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को परम ऐश्वर्य रूप दिखाया। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 8-9 संजय बोले: ऐसा कहकर फिर महायोगेश्वर हरि ने अर्जुन को ‘परम’ ऐश्वर्य रूप दिखाया।
आज के समय में कोई भगवान के विश्वरूप दर्शन करना चाहता है तो एक गुरू ही अपने शिष्य को यह दर्शन करवा सकता है। एक तत्वज्ञानी गुरू जब हाथ पकड़कर ध्यान की अनन्त गहराई में लेकर जाता है, तब शिष्य विश्वरूप परमेश्वर के दर्शन कर पाता है। बिना सच्चे ज्ञानी गुरू बगैर यह रूप देखा जाना सम्भव नहीं, इस रूप के दर्शन करने के लिए गुरू का तत्वज्ञानी होना जरूरी है और शिष्य को भगवान व गुरू में भेद नहीं मानना चाहिए। अर्थात् शिष्य में भी वह गुण व श्रद्धा होनी चाहिए कि वह गुरू की बातों पर विश्वास करके सम्पूर्ण अपने आपको गुरू के समर्पण कर दे। जितनी सिद्धियाँ आपने सुनी है यह कोई अंधविश्वास नहीं यह सिद्धियाँ पहले भी थी और आज भी आत्मज्ञानी गुरू के पास मिल जाएगी। अगर आपको ऐसा गुरू ना मिले तो आप परम धाम की विचार धारा की शरण में जाएं आपको सम्पूर्ण सिद्धियाँ और मुक्ति का ज्ञान मिलेगा।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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