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मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।
अर्थ हे पांडव ! जो मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, मेरे ही परायण है, और मेरा ही प्रेमी भक्त है तथा सर्वथा आसक्ति (इच्छा) रहित और प्राणी मात्र के साथ वैरभाव से रहित है। वह योगी मुझे प्राप्त होता है। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 55 हे पाण्डव जो मेरे लिए ही कर्म करने वाला है और मेरे साथ युक्त है अर्थात् जिसने यह जान लिया कि हम कुछ नहीं करते, सब कुछ करने वाला एक ईश्वर ही है और अपने ‘मैं’ के अहंकार को छोड़कर, जो व्यक्ति मुझमें अपनी आत्मा को विलीन कर चुका है। कर्मयोगी संसार में कोई भी कर्म करें जिससे सर्वहित का फायदा हो वह अपने सम्पूर्ण कर्म परमात्मा के कर्म समझकर, उनका फल भी परमात्मा को अर्पण करके अर्थात् कर्मों के फल की इच्छा ना रखना ही आसक्ति रहित होना है। सब प्राणियों से वैरभाव छोड़कर, मेरा ही प्रेमी भक्त है, वह प्रेमी भक्त देह त्याग होने पर मुझे ही प्राप्त होता है। यानि उस भक्त का दोबारा संसार में जन्म नहीं होता। वह परमधाम यानि मोक्ष को ही प्राप्त होता है।
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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