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भक्त्या त्वनन्यया शक्यमहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं दृष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप।।
अर्थ परन्तु हे परन्तप अर्जुन ! इस प्रकार मैं केवल अनन्य भक्ति से ही तत्त्व से जानने में और देखने में तथा प्राप्त करने में शक्य हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 54 अनन्य भक्ति! अर्थात् एक परमात्मा का ही हर क्षण चिन्तन, मनन, ध्यान, समाधि और समसाधना ध्यान योग में स्थित रहना अनन्य भक्ति है। अनन्य यानि अन्य और किसी का चिन्तन ना करना परम में ही अपनी आत्मा को स्थिर रखना परम भक्ति है। एकीभाव भक्ति से ही तत्व से जानने और देखने में तथा प्राप्त करने में आसान हूँ।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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