श्री भगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः।।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।
अर्थ श्री भगवान बोले - मेरा जो ये विराट रूप तूने देखा था इसके दर्शन अत्यन्त ही दुर्लभ है। देवता भी इस रूप को देखने के लिए नित्य लालायित रहते हैं।
जिस प्रकार तूने देखा है, इस प्रकार का मैं न तो वेदों से, न तप से, न दान से, न यज्ञ से देखा जा सकता है। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 52-53
श्री भगवान बोले: मेरा यह जो परम विश्वरूप तुमने देखा, इस परम रूप के दर्शन मनुष्य के लिए देख पाना बहुत ही दुर्लभ है। इस परम रूप को देखने के लिए तो देवता भी लालायित (इच्छुक) रहते हैं। अर्थात् पुण्य कर्म अच्छे लोक, ऊँचे भोग तो दे सकते हैं। परन्तु परम के दर्शन करने की सिद्धियाँ उनके पास भी नहीं। देवता भी निर्गुण निराकार परम ईश्वर के दर्शन के लिए लालायित रहते हैं।
जिस परम रूप को तुमने देखा है, इस प्रकार का रूप ना तो वेदों को पढ़कर और ना तप, दान, यज्ञ से ही करके परम रूप के दर्शन किए जा सकते हैं अर्थात् वेद, दान, तप, यज्ञ करके भी आप इस परम विराट रूप के दर्शन नहीं कर सकते।
जब कोई किसी साधन से भी आपको प्राप्त नहीं कर सकता तो यह सवाल उठता है कि तो फिर आप किस प्रकार देखने जानने में आते हैं। इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं।
जिस परम रूप को तुमने देखा है, इस प्रकार का रूप ना तो वेदों को पढ़कर और ना तप, दान, यज्ञ से ही करके परम रूप के दर्शन किए जा सकते हैं अर्थात् वेद, दान, तप, यज्ञ करके भी आप इस परम विराट रूप के दर्शन नहीं कर सकते।
जब कोई किसी साधन से भी आपको प्राप्त नहीं कर सकता तो यह सवाल उठता है कि तो फिर आप किस प्रकार देखने जानने में आते हैं। इसका उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं।