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श्री भगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च।

पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।।
अर्थ श्री भगवान बोले - हे पार्थ अब मेरे अनेक तरह के और अनेक वर्णों रंगों तथा आकृतियों वाले सैकड़ों हजारों आलौकिक रूप को तू देख। हे भारत ! आदित्यों को, वसुओं को, रूद्रों को और अश्विनी को तथा मरूद्गणो को देख, जिनको तूने पहले कभी नहीं देखा, ऐसे बहुत से आश्चर्य जनक रूपों को भी देख। व्याख्या गीता अध्याय 11 का श्लोक 5-6 जैसे एक बड़े वृक्ष का एक-एक पत्ता भी पेड़ ही है, ऐसे ही यहाँ छोटे से छोटा जीव परमात्मा का अंश होने के कारण यह संसार भी विश्वरूप ही है। परन्तु यह हरेक के सामने दिव्य विश्व रूप से प्रकट नहीं, परन्तु संसार रूप से ही प्रकट है, कारण कि मनुष्य की दृष्टि परम की तरफ ना होकर नाशवान संसार की तरफ रहती है, इसलिए सम्पूर्ण संसार में संसार ही नजर आता है। भगवान कहते हैं अर्जुन से हे पार्थ अब मेरे अनेक तरह के और अनेक रंगों तथा आकृतियों वाले सैकड़ों हजारों दिव्य रूपों को देख अर्थात् कोई किसी रंग का, कोई किसी रंग का, कोई हरा तो, कोई नीला आदि अनेक रूप, रंग, आकृति वाले अलग-अलग रूप देख। एक ईश्वर में कई तरह के रंग आकृति में देखने को कहा है, अब इसी बात को विस्तार से कहते हुए भगवान बोले कि सभी देवता मेरे ही स्वरूप हैं अर्थात्   उन देवताओं के रूप में मैं ही हूँ।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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