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मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य।।
अर्थ यह मेरा इस प्रकार का उग्र विराट रूप देखकर तुझे व्यथा नहीं होनी चाहिए और विमूढ भाव भी नहीं होना चाहिए। अब निर्भय और प्रसन्न मन वाला होकर तू मेरे इस (विराट रूप) को अच्छी तरह देख ले। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 49 अर्जुन को भगवान कहते हैं कि मैं तुम पर कृपा करके ही ऐसा विराट रूप दिखा रहा हूँ। इसको देखकर तेरे को भयभीत नहीं होना चाहिए।
   दूसरी बात मैं तो प्रसन्न ही हूँ और अपनी खुशी से तेरे को यह विश्वरूप दिखा रहा हूँ। परन्तु तू भय के कारण बार-बार यह कह रहा है कि प्रसन्न हो जाओ, प्रसन्न हो जाओ, यह तेरा संसार के प्रति मोह है, तू इसको छोड़ दे।
  तीसरी बात पहले तुम कह रहे थे कि मेरा मोह चला गया, पर वास्तव में तेरा मोह गया नहीं है, तेरे को इस संसार और शरीर का मोह छोड़ देना चाहिए और निर्भय होकर मेरा विराट रूप देखना चाहिए। तेरा और मेरा जो संवाद है यह तो आनंद रूप होना चाहिए, इसमें तुमको भय और मोह बिलकुल भी नहीं होना चाहिए। इसलिए भगवान कहते हैं अर्जुन से कि तू निर्भय और प्रसन्न मन वाला होकर, मेरे इस परम विराट रूप को अच्छी तरह देख ले।
भगवान ने अर्जुन को अपने विश्वरूप देखने की आज्ञा दी है, कि तू भय और मोह ना कर, अच्छे से मेरे विराट रूप देख ले।
‘‘इसका वर्णन संजय आगे के श्लोक में करते हैं’’
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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