श्री भगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्।।
न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर।।
अर्थ श्री भगवान बोले - हे अर्जुन ! मैंने प्रसन्न होकर आत्म सामर्थ्य से मेरा यह परम तेज स्वरूप सबका आदि और अनंत विश्व रूप तुझे दिखाया है, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसी ने नहीं देखा है।
हे कुरूक्षेष्ठ ! मनुष्यों में इस प्रकार के विश्वरूप वाला मैं न वेदों के पाठ से न यज्ञों के अनुष्ठान से, न शास्त्रों के अध्ययन से, न दान से, न उग्र तपों से और न क्रियाओं से तेरे सिवाय और किसी के द्वारा नहीं देखा जा सकता। व्याख्या गीता अध्याय 11 का श्लोक 47-48
हे अर्जुन! मैं खुश होकर मेरी आत्म योग्यता से यह परम तेज स्वरूप अनादि और अनन्त विश्वरूप तुझे दिखा रहा हूँ, जिसको तुम्हारे सिवाय पहले किसी ने नहीं देखा।
हे कुरूवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन इस मनुष्य लोक (पृथ्वी) पर आज से पहले किसी ने मेरे इस विश्वरूप को नहीं देखा, मैं इस विश्वरूप वाला न वेदों में, न पाठों में, न यज्ञों से, न दान से, न तप से, न क्रियाओं से नहीं देखा जा सकता हूँ।
हे कुरूवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन इस मनुष्य लोक (पृथ्वी) पर आज से पहले किसी ने मेरे इस विश्वरूप को नहीं देखा, मैं इस विश्वरूप वाला न वेदों में, न पाठों में, न यज्ञों से, न दान से, न तप से, न क्रियाओं से नहीं देखा जा सकता हूँ।