अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।
तदेव मे दर्शय देव रूपं प्रसीद देवेश जगन्निवास।।
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।।
अर्थ जिसको पहले कभी नहीं देखा, उस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही भय से मेरा मन अत्यंत व्यथित हो रहा है। इसलिए आप मुझे अपने उसी देव रूप को दिखाइए। हे देवेश ! हे जग निवास ! आप प्रसन्न होइए।
चारों तरफ भुजा वाले विश्वमूर्ति में आपको वैसे ही (मुकुट) गदाधारी और हाथ में चक्र लिए हुए रूप से देखना चाहता हूँ। इसलिए हे सहशस्त्रभाव ! आप उसी रूप में हो जाइए। व्याख्या गीता अध्याय 11 का श्लोक 45-46
अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखकर भगवान श्री कृष्ण से कहा जिसको मैंने पहले कभी नहीं देखा, आपके इस रूप को देखकर मैं हर्षित (आश्चर्य) हो रहा हूँ और भय से मेरा मन भयभीत हो रहा है। इसलिए कृपा करके आप मुझे उसी शांत देवरूप को दिखलाएं और मैं आपको वैसे ही मुकुटधारी गदाधारी और हाथ में चक्र लिए हुए आपके रूप (कृष्ण रूप) को देखना चाहता हूँ। हे विश्वमूर्ति उसी रूप को दिखलाएं।
अर्जुन कह रहे हैं मैं आपको उसी रूप में देखना चाहता हूँ। सर पे मुकुट, हाथ में गदा व चक्र लिए हुए आप उसी कृष्ण रूप में आ जाएँ, मैं आपको उसी रूप में दोबारा देखना चाहता हूँ।
इसलिए हे सहस्त्र बाहो (हजारों अस्त्र-शस्त्र विश्वरूप में उठाये हुए) हे विश्वमूर्ति (पूरे जगत की मूर्त आप ही हो) आपके चारों दिशा में भुजा है, इसलिए आप चतुर्भुजेन हो।
अर्जुन कह रहे हैं मैं आपको उसी रूप में देखना चाहता हूँ। सर पे मुकुट, हाथ में गदा व चक्र लिए हुए आप उसी कृष्ण रूप में आ जाएँ, मैं आपको उसी रूप में दोबारा देखना चाहता हूँ।
इसलिए हे सहस्त्र बाहो (हजारों अस्त्र-शस्त्र विश्वरूप में उठाये हुए) हे विश्वमूर्ति (पूरे जगत की मूर्त आप ही हो) आपके चारों दिशा में भुजा है, इसलिए आप चतुर्भुजेन हो।