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तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्।।
अर्थ इसलिए स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं शरीर से लम्बा पड़कर प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। पिता जैसे पुत्र के, मित्र जैसे मित्र के, पति जैसे पत्नी के अपमान सहन कर लेता है ऐसे ही हे देव ! आप मेरे द्वारा किया गया अपमान क्षमा करने में सामर्थ्य हैं। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 44 पिता के लिए पुत्र हमेशा बच्चा ही रहता है इसलिए पिता, पुत्र को अपना मानकर माफ कर देता है।
    मित्र जैसे मित्र के लिए या मित्र से ही किये हुए अपमान को सह लेता है, परिवार के रिश्ते थोपे हुए रिश्ते होते हैं। मित्र का रिश्ता व्यक्ति खुद बनाता है, बड़ी गलती को भी अगर मित्र समझ कर माफ करदे वही मित्र कहलाने लायक है।
    पति जैसे अपनी प्रियत्मा पत्नी के मजाक और अपमान को सह लेता है ऐसे ही हे देव आप मेरे द्वारा किये गये अपमान को क्षमा करने में समर्थ हो, इसलिए स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं शरीर से लम्बा पड़कर प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ आप प्रसन्न होइए।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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