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वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते।।

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः।।
अर्थ वायु, यमराज, अग्नि, चन्द्रमा, वरूण, दक्ष आदि प्रजापति और पितामह (ब्रह्मा जी के भी पिता) आपको हजारों बार नमस्कार हो, नमस्कार हो और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार-नमस्कार हो। हे सर्वस्वरूप ! आपको आगे से भी नमस्कार हो और पीछे से भी नमस्कार हो। आपको सर्वत्र दिशाओं में ही नमस्कार हो। हे अंनतर्वीण ! असीम पराक्रम वाले आपने सबको एक स्थान में समेट रखा है। अतः सब कुछ आप ही हो। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 39-40 वायु:        सम्पूर्ण प्राणियों के प्राण (साँस) जो वायु रूप से है वह आप ही हैं।
यम:    जो मन को संयम करले और मन को वश में करले वह यम आप ही हैं।
अग्नि:    प्रकट होकर प्रकाश देती है और जठर अग्नि द्वारा अन्न पचता है, वह आप ही हो।
वरूण:        जल के अधिपति आप है।
चन्द्रमा:    सम्पूर्ण औषधियों और वनस्पतियों का पोषण होता है वह चन्द्रमा आप ही हो।
प्रजापति:    ब्रह्म आप ही हो।
पितामह:    ब्रह्म को प्रकट करने वाले होने से ब्रह्म के भी पिता आप ही हैं अर्थात् सबको उत्पन्न करने वाले होने से परम प्रभु निर्गुण निराकार आप ही पितामह हैं।
आप अनन्त स्वरूप हैं आपकी मैं क्या स्तुति करूँ, क्या महिमा गाऊँ मैं तो आपको हजारों बार नमस्कार ही कर सकता हूँ और कर भी क्या सकता हूँ। परमात्मा विश्व रूप निराकार है अनन्त स्वरूप है और शब्दों से व्याख्या भी नहीं कर सकते कि परमात्मा किस जैसा है क्योंकि वह सर्व स्वयं स्वरूप है, विश्व रूप परम का अर्जुन को पता भी नहीं लग रहा था कि यह कौन सी साईड आगे है कौन सी पीछे। इसलिए अर्जुन कहते हैं कि हे सर्वस्वरूप आपको आगे से पीछे से सब और दिशाओं से ही नमस्कार, नमस्कार हो, क्योंकि अनन्त शक्तिशाली आप समस्त जगत को व्याप्त किए हुए हैं। सब कुछ आप ही हैं।
अर्जुन बड़ी आलौकिक बात देख रहे हैं कि परमात्मा अनन्त लोकों में परिपूर्ण व्याप्त हो रहे हैं और अनन्त सृष्टि परम के किसी एक अंश में है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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