अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत् प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः।।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत्।।
अर्थ अर्जुन बोले - हे अंतरयामी ! आपके नाम, गुण, लीला का कीर्तन करने से यह सम्पूर्ण जगत खुश हो रहा है और प्रेम को प्राप्त हो रहा है। आपके नाम, गुण आदि के कीर्तन से भयभीत होकर राक्षस लोग दसों दिशाओं में भागते हुए जा रहे हैं और सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं।
हे गुरूओं के भी गुरू और ब्रह्मा के भी आदिकर्त्ता ! आपके लिए वे सिद्धगण नमस्कार क्यों नहीं करे, क्योंकि हे अनन्त ! हे देवेश ! हे जगनिवास ! आप अक्षर स्वरूप हैं, आप सत् भी हैं, असत् भी हैं और उनसे पर भी जो कुछ है वह भी आप ही हैं। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 36-37
भगवान को विश्वरूप में देखकर अर्जुन आगे कहते हैं कि हे अन्तर्यामी (आत्मरूप) भगवन आपके कीर्तन करने से सम्पूर्ण जगत खुश होकर प्रेम को प्राप्त हो रहे हैं।
आपका ध्यान, सिमरन, सत्संग (सच्चे लोगों का संग ही सत्संग होता है) करने से, जो राक्षस लोग हैं अर्थात् भगवान का नाम ना सुनने वाले लोग असुरी प्रवृति वाले मनुष्य और राक्षस, भूत, प्रेत वे सब के सब आपके नाम और गुणों का कीर्तन करने से भयभीत होकर भाग रहे हैं
जिन लोगों का अच्छा समय नहीं आया और अब तक पापों का हिसाब बाकी पड़ा है। तब तक वह भगवान के गुणों को सह नहीं पाते, जहाँ गुणगान होता है वहाँ वह टिक नहीं पाते, वहाँ से या तो उनका मन या वह खुद वहाँ से खड़े होकर अलग दिशाओं में भाग जाते हैं
सन्तों और योगियों और भी जो परमात्मा मार्ग पर चलने वाले सिद्धगण हैं, वे सबके सब आपके नामों और गुणों का सत्संग करके आपको नमस्कार कर रहे हैं, यह सब ऐसा ही होना चाहिए और ऐसा ही हो रहा है।
हे महात्मन गुरूवों के भी गुरू और ब्रह्मा जी के भी आदिकर्ता यानि आप ही सबकुछ हो फिर आपको सिद्धगण नमस्कार क्यों नहीं करे अर्थात् आप ही परम ईश्वर हो आपको तो सिद्धगण नमस्कार करेंगे ही और हे अनन्त जग को निवाश करने वाले अक्षर स्वरूप (ओम अक्षर स्वरूप परमात्मा का ही नाम है) आप ही सत् हो, आप ही असत् हो। सत्, असत् से परे शांत स्थिर परमात्मा रूप सत चित आनन्द जो कुछ है वह सब कुछ आप ही हो।
आपका ध्यान, सिमरन, सत्संग (सच्चे लोगों का संग ही सत्संग होता है) करने से, जो राक्षस लोग हैं अर्थात् भगवान का नाम ना सुनने वाले लोग असुरी प्रवृति वाले मनुष्य और राक्षस, भूत, प्रेत वे सब के सब आपके नाम और गुणों का कीर्तन करने से भयभीत होकर भाग रहे हैं
जिन लोगों का अच्छा समय नहीं आया और अब तक पापों का हिसाब बाकी पड़ा है। तब तक वह भगवान के गुणों को सह नहीं पाते, जहाँ गुणगान होता है वहाँ वह टिक नहीं पाते, वहाँ से या तो उनका मन या वह खुद वहाँ से खड़े होकर अलग दिशाओं में भाग जाते हैं
सन्तों और योगियों और भी जो परमात्मा मार्ग पर चलने वाले सिद्धगण हैं, वे सबके सब आपके नामों और गुणों का सत्संग करके आपको नमस्कार कर रहे हैं, यह सब ऐसा ही होना चाहिए और ऐसा ही हो रहा है।
हे महात्मन गुरूवों के भी गुरू और ब्रह्मा जी के भी आदिकर्ता यानि आप ही सबकुछ हो फिर आपको सिद्धगण नमस्कार क्यों नहीं करे अर्थात् आप ही परम ईश्वर हो आपको तो सिद्धगण नमस्कार करेंगे ही और हे अनन्त जग को निवाश करने वाले अक्षर स्वरूप (ओम अक्षर स्वरूप परमात्मा का ही नाम है) आप ही सत् हो, आप ही असत् हो। सत्, असत् से परे शांत स्थिर परमात्मा रूप सत चित आनन्द जो कुछ है वह सब कुछ आप ही हो।