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अमी हि त्वां सुरसङ्घाः विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाः स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः।।

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे।।
अर्थ वे ही देवताओं के समुदाय आपमें प्रवेश हो रहे हैं। उनमें से कोई तो भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए गुणों का कीर्तन कर रहे हैं, महर्षियों और सिद्धों के समुदाय कल्याण हो ऐसा कहकर उत्तम शब्द के द्वारा आपका गुणगान कर रहे हैं। जो रूद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वेदेव और अविनाशी कुमार तथा मरूद्गण और पित्रगण तथा गंधर्व, दक्ष, असुर और सिद्धों के समुदाय हैं, वे सभी चकित होकर आपको देख रहे हैं। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 21-22 देवता, महर्षि, सिद्ध सबके सब परम के ही अंग है। भयभीत होने वाले परम के गुणों का गुणगान, स्तुति करने वाले यह सब परमात्मा के ही अलग-अलग रूप हैं।
रूद्र, आदित्य, वसु, साध्यगण, अश्विनी कुमार आदि सबके सब एक परम ईश्वर के ही अंग है। दृष्टि, दृष्टा, दर्शन सब परम ही हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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