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अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम् स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।

द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाऽद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन्।।
अर्थ आपको मैं आदि, मध्य और अंत से रहित अनन्त प्रभावशाली, अनन्त भुजाओं वाले, चन्द्र और सूर्य रूप में नेत्रों वाले, प्रज्वलित अग्नि रूप मुखों वाले और अपनी तेज से इस विश्व को तपाते हुए देख रहा हूँ। हे महात्मन् यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का अंतराल और सम्पूर्ण दिशाएं एक आप से ही व्याप्त हैं। आपके इस अद्भुत और उग्र रूप को देखकर तीनों लोक व्याकुल हो रहे हैं। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 19-20 आप आदि, अध्य और अन्त से रहित है अर्थात् आपकी कोई सीमा नहीं। अनन्तवीर्य अर्थात् आपमें अनंत सामर्थ्य, बल, तेज आदि शक्तियाँ है। आपकी कितनी भुजाएँ हैं, उनकी कोई गिनती नहीं कर सकता। चन्द्रमा और सूर्य आपकी दोनों आँखें हैं और अग्नि आपका मुख है और अपने तेज से सम्पूर्ण विश्व को तपाने वाले आप ही है।
पृथ्वी और सूर्य या चन्द्रमा के बीच का अंतर (आकाश) और सम्पूर्ण दिशाएँ आपसे ही परिपूर्ण हैं। आपके इस अद्भुत उग्र रूप को देखकर तीनों लोक (आकाश, पाताल, पृथ्वी) व्याकुल हो रहे हैं।
जैसे एक ही स्त्री सबको अलग-अलग दिखती है जैसे बालक को माँ के रूप में, पति को पत्नी के रूप में, बाप को बेटी के रूप में, शेर को भोजन के रूप में, ऐसे एक ही परमात्मा अलग-अलग रूप में दिख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा में, सूर्य में, अग्नि रूप में, जल, आकाश, सम्पूर्ण प्राणी चल-अचल सम्पूर्ण ब्रह्म में परम ही समाया हुआ है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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