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अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतोदीप्तिमन्तम्।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ता द्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्।।
अर्थ हे विश्वरूप, हे विश्व ईश्वर आपको मैं अनेक हाथों, पैरों, मुखों और नेत्रों वाला तथा सर्वत्र अनन्त रूपों वाला देख रहा हूँ। मैं आपके न आदि को, न मध्य को और न अंत को ही देख रहा हूँ। मैं आपको मुकुट, गदा, चक्र तथा शंख धारण किए हुए देख रहा हूँ। आपको तेज की राशी सर्वत्र प्रकाश वाले दैदीप्यमान अग्नि तथा सूर्य के समान कांतिवाले नेत्रों के द्वारा कठिनता से देखे जाने योग्य और सब तरफ से अप्रेमिय स्वरूप को देख रहा हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 11 का श्लोक 16-17 हे परम विश्वरूप में आपके अनेक हाथों, पैरों, मुखों और नेत्रों वाला अर्थात््् परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है। सब जीवों में आत्म रूप से परम का ही अंश है। सब जीवों में आत्मा होने से सब प्राणियों के हाथ, मुख, नेत्र, सब और अनन्त रूपों वाला परमात्मा ही है, आपके आदि, मध्य, अंत को नहीं देख रहा हूँ, परम विराट रूप का अंत नहीं जहां तक देखोगे आपको वहाँ तक अनन्त ईश्वर ही नजर आएगा। 
मैं आपको किरीट (मुकुट) गदा, चक्र, शंख धारण किये देख रहा हूँ, आप तेज की राशि है अर्थात््् तेज के समूह का समूह अनन्त तेज जैसे इकट्ठा हो गया हो (इसी अध्याय के बारहवें श्लोक) में संजय ने कहा हजारों सूर्य का प्रकाश परम प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकता। स्वयं प्रकाश रूप होने से आप सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश कर रहे हो, आप सब तरफ से अप्रेमय अर्थात््् माप के विषय में नहीं आने वाले हैं। साकार-निराकार सभी रूपों में परम ही आत्म रूप से विराजमान है।
अर्जुन आगे भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं कि
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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