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मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
अर्थ मुझमें मन वाले, मुझमें प्राणों को अर्पण करने वाले (भक्तजन) आपस में मेरे गुण प्रभाव आदि को जानते हुए और उसका कथन करते हुए हर रोज हरपल संतुष्ट रहते हैं और मुझको ही प्रेम करते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 9 भगवान कहते हैं मुझमें मन वाले और दूसरे होते है संसार के भोगों में मन लगाने वाले परन्तु योगी संसार की माया से संबंध विच्छेद करके आत्मा में ही मन लगाते हैं और मन जहाँ शांत, शून्य हो जाता है तब मन को लगाना नहीं पड़ता, वह जहाँ भी जाए जहाँ पर भी देखे फिर उस योगी को परमात्मा ही नजर आता है, एक बार परमात्मा में मन लग गया यानि शून्य हो गया फिर तो वह परमात्मा से निकलना चाहे तो भी नहीं निकल सकता, फिर चाहे वह आँखें खोले या बंद करे, सब जगह परमेश्वर ही नजर आता है, फिर तो आप उसमें ऐसे होते हो जैसे सागर में मछली। ध्यान से जाना जाता है कि मेरे प्राण उसी से चल रहे हैं, मेरी साँसें उसकी साँसें से अलग नहीं हैं। परम प्रभु को जब व्यक्ति अज्ञान से जानता है तब इसका नाम संसार है और ज्ञान के द्वारा आप संसार को जानते तब इसका नाम परमप्रभु है। परम और ब्रह्म एक ही विराट के दो रूप हैं। भगवान कहते हैं! मुझमें मन स्थिर करने वाले प्राणी मुझमें ही प्राणों का हवन किया करते हैं, ऐसे भक्त मेरे गुण, शक्ति आदि को जानते हुए उनका ही आपस में बैठ कर गुणगान करते हुए ‘हर रोज हर क्षण’ अपनी आत्मा में ही सन्तुष्ट रहते हैं और आत्मा में ही परम प्रेम करते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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