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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।।
अर्थ जो मनुष्य मेरी इस विभूति को और योग (सामर्थ्य) को तत्त्व से जानता है वह अविचल योग से युक्त हो जाता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 7 विभूति और योग: विभूति नाम परमात्मा की आभा, तेज, एश्वर्य को कहते हैं और अनन्त शक्ति अनन्त सामर्थ्य का नाम योग है। परमात्मा की इस रचना और शक्ति को जो तत्व से जानता है (कण-कण में परमात्मा को अनुभव करना तत्व से जानना है) और जो योगी परम प्रभु को तत्व से जान लेता है, वह आत्म बोध होने के बाद कोई भी शक शंका नहीं करता। वह स्वीकार कर लेता है, परमात्मा ही कण-कण हैं, वह अविचल भक्ति योग से युक्त हो जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। अविचल: अर्थात स्थिर हो जाना आत्मा में युक्त हो जाना। मन की ऐसी अवस्था जहाँ कोई दौड़ नहीं, मन में ऐसी अवस्था जहाँ ना कोई भूतकाल, ना ही भविष्य, मन एक क्षण भी ना आगे चले, ना पीछे बस अभी इसी क्षण में स्थिर हो जाए उसी का नाम अविचल योग है। याद रखें धन मिल सकता है बेचैनी के साथ, यश भी मिल सकता है बेचैनी के साथ, परमात्मा नहीं मिल सकते बेचैनी के साथ, संसार में कुछ पाना हो तो दौड़ो, परमात्मा को पाना हो तो ठहरो, जहाँ हो भीतर वहीं ठहर जाओ।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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