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नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परंतप।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया।।

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसंभवम्।।
अर्थ हे परंतप ! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। मैंने तुम्हारे सामने अपनी विभूतियों का विस्तार कहा है, यह तो केवल नाममात्र कहा है। जो जो ही ऐश्वर्य युक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा पदार्थ है उस पुरूष को तुम मेरे ही तेज के अंश से उत्पन्न हुआ समझो। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 40-41 भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का अन्त नहीं मैंने जो अपनी विभूतियों का जो विस्तार कहा यह तो केवल ना मात्र है, अर्जुन ने यही प्रश्न पूछा था कि हे भगवान मैं आपको कहाँ-कहाँ चिन्तन करूँ, तब भगवान ने अपनी विभूति को अच्छे से वर्णन किया कि आदि, मध्य, अन्त मैं हूँ, मेरे बिना कोई चर अचर प्राणी नहीं, सम्पूर्ण जगत मेरे एक अंश में स्थित है, कुछ भी बाकी नहीं रहा सब कुछ परमात्मा ही है। भगवान बोले- जो ऐश्वर्य और शोभा से युक्त है, बल से युक्त है, उसको मेरे तेज के अंश से उत्पन्न हुआ समझो।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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