बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च।।
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः।।
अर्थ बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह, क्षमा, सत्य, दम, सम, तथा सुख, दुख, उत्पत्ति, विनाश, भय, अभय और अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश (कीर्ति) और अपयश-प्राणियों के ये अनेक प्रकार के अलग-अलग भाव मुझसे ही होते हैं। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 4-5
जैसे पेड़ एक ही होता है, फल, फूल, पत्ते, टहनियाँ अलग-अलग होती हैं, ऐसे ही परमात्मा एक ही है पर उनसे प्रकट होने वाले भाव अलग-अलग हैं, एक ही परम में अनेक प्रकार के भाव अलग-अलग रहते हैं। ऐसे ही क्रिया अलग-अलग हैं कोई दुखी है तो कोई सुखी, कोई जन्म रहा है कोई मर रहा है, कोई सो रहा है कोई जाग रहा है, अलग-अलग जो चेष्टा हो रही है, वह सब परम प्रभु की लीला ही है। योगी की दृष्टि हर क्षण भगवान पर ही रहनी चाहिए। क्योंकि इन सबके भीतर एक परमात्मा तत्व ही है। जैसे -
बुद्धि: मनुष्य का पूरा मन किसी भी कार्य में नहीं होता बुद्धि से कार्य करने की योजना बनाने के बाद भी मन नहीं मानता कि यह कार्य होगा या नहीं, हर कार्य में मन हमेशा अधूरा ही रहता है और जब बुद्धि से दृढ़ निश्चय करके मनुष्य पूरा तैयार हो जाता है तब मन शून्य हो जाता है, अधूरे आदमी के पास मन होता है, पूरे आदमी के पास मन नहीं होता, राम, कृष्ण जैसे व्यक्तियों के पास मन नहीं होता और जहाँ मन नहीं होता वही व्यक्ति अपने आत्म बल से निश्चय करता है, कृष्ण कहते हैं अर्जुन तू पूरा निश्चय कर पाएगा उस पल समझ लेना, यह निश्चय करने की बुद्धि मैं हूँ।
ज्ञान: कृष्ण कहते हैं ज्ञान मैं हूँ अर्थात् जानना ही ज्ञान है अपने भीतर धारणा निर्मित करना, कोई ईमेज, कोई प्रतिमा निर्मित करना अपने भीतर वह जानना मैं हूँ, जानना ही ज्ञान है, ज्ञान को शब्दों से नहीं जाना जा सकता, शब्दों का संग्रह जानना नहीं, जानना एक भीतरी भाव है, शब्द जानना नहीं है ना तो शब्दों की आग से कोई जल सकता है और ना शब्दों के फूल से सुगंध आती है, परमात्मा ‘शब्द’ से भी कोई अनुभव नहीं मिलता, शब्द परमात्मा नहीं परमात्मा एक शून्य भाव है, वह भाव भीतर ना हो और शब्दों से कितना भी परमात्मा-परमात्मा रटता रहे, वह बिना भाव के सिर्फ शब्दों से कभी परमात्मा तक नहीं पहुँच सकता।
ऐसा तो हो सकता है वह शब्दों को रटते-रटते भ्रम में तो पड़ सकता है, जैसे पंडित भ्रम में पड़ जाते हैं पंड़ित अज्ञानियों से भी ज्यादा भटक जाते हैं, जैसे पंड़ित के पास शास्त्रों के शब्दों का संग्रह तो होता है लेकिन उन शब्दों के भावों को जानते नहीं कभी भी, वह अपने ही शब्दों को दोहराते-दोहराते एक गहरे भ्रम में पड़ जाते हैं, भ्रम यही कि मैं सब जानता हूँ।
शब्द जानना नहीं, जानना अपने भीतर शब्द व विचार शून्य होता है, जब कोई शांत हो जाता है शब्दों से, तो भीतर दर्पण बन जाता है और दर्पण में जो झलक मिलती है वह जानना होता है।
अगर आप पूर्णिमा की रात में सागर की लहरों में चाँद को देखते हैं तो चाँद तो एक है, परन्तु लहरों में आपको टुकड़ों में बिखरा नजर आता है वह टुकड़ों में नजर आ रहा है वह चाँद नहीं टूटा, वह तो सागर का दर्पण टूटा है, जब लहर बिलकुल शांत हो जाती हैं, तब सागर भी दर्पण बन जाता है, जब सागर दर्पण बन जाता है तब एक ही चाँद नजर आता है, शब्दों से जब कोई पूर्ण शांत हो जाता तब उसे भीतर तत्व ज्ञान का अनुभव होता है, वह अनुभव जानना होता है वही यर्थाथ ज्ञान होता है।
असम्मोह मैं हूँ: एक होता है सम्मोह यानि समोहित हो जाना, हिप्नोटाइज हो जाना, ऐसा व्यक्ति जो जागा हुआ दिखता है, लेकिन जागा हुआ होता नहीं, सोया-सोया रहता है जैसे नींद में चल रहा है। आप कभी सड़क के किनारे पर खड़े होकर देखना और पूरे गौर से आँखें गढ़ा कर देखना लोगों को, जब आप थोड़ी देर देखोगे तो आपको लगेगा लोग नींद में चल रहें हैं। ये प्रकृति के गुणों से इतने सम्मोह है यानि हिप्नोटाइज है, कि कोई व्यक्ति अकेला ही बात करते हुए जा रहा है।
हाथों से इशारे भी कर रहा है, उनके होंठ भी हिल रहे हैं, चेहरे का भाव भी बदल रहा है, आदमी होश में है या नींद में सपने देख रहा है।
हर व्यक्ति समोहित है गुणों से, हर व्यक्ति के सपने चल रहे हैं, हम सब के भीतर सपने चल रहे हैं, हम कोई भी काम कर रहे हो चाहे, भीतर सपनों का जाल चल रहा है और आपको पता है सपने तभी चलते हैं, जब भीतर नींद हो, बिना निंद्रा के सपने नहीं चल सकते सबके भीतर चौबीस घंटे सपनों की लहर चलती रहती है। अभी आँखें बंद करो सपने दिखाई देने शुरू हो जाएँगे। जब हम आँखें बंद नहीं करते, तब यह मत सोचना कि भीतर सपने नहीं चल रहे, सपने तो तब भी चलते हैं लेकिन खुली आँखें के कारण बाहर के प्रकाश से सपने दिखई नहीं पड़ते, जब बाहर देखते हैं तो जरूरत के कारणो से आपको सपने दिखाई नहीं पड़ते, आँखें बंद करो सपने दिखाई पड़ने शुरू हो जाएँगे।
रात को आप आकाश को देखते हो तो तारे दिखाई पड़ते हैं, दिन में आप आकाश की तरफ देखते हो तो तारे दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि दिन में सूर्य का प्रकाश बीच में आ जाता है इसलिए तारे दिखाई नहीं पड़ते। प्रकाश बीच में आने से आपकी आँखें तारांे को देख नहीं पाती, अगर दिन के प्रकाश में आप गहरे कुएँ में चले जाओ तो गहरे कुएँ से देखोगे तो आपको तारे दिखाई देंगे, कुएं का अधेरा तारों को दिखाने में सहयोगी है।
ऐसे ही चौबीस घंटे हमारे भीतर सपने चलते हैं, आँखें बंद करो अभी सपने दिखाई देने शुरू हो जाएँगे। ये सपने आपको खबर दे रहे हैं कि आप भीतर सोए हुए हैं। समोहित का अर्थ है- एक तरह कि निंद्रा, सोए-सोए चलना, भीतर भी सोए रहना। यह संकेत है कि हम जागे हुए नहीं हैं।
आप अभी एक मिनट के लिए एक कोशिश करें कि आपके भीतर सपने हैं कि नहीं, आप अपनी घड़ी की सुई पर गहरी नजर गाड़ कर विचार स्थिर हो जाएँ, आपको एक मिनट तक सैकंड वाली सुई को देखते रहना है बस सुई को ही देखते रहना है, और कोई भी विचार ना लाएँ सिर्फ साठ सैकंड।
आपने देखा होगा एक मिनट में पाँच से दस बार कोई ना कोई विचार सपने बनकर आ गए, आप घड़ी कि सूई को भूल गए बार-बार आप अच्छे से देखेंगे तो पता चलेगा कि आप कितने सोए हुए व्यक्ति हो।
इस प्रकृति सम्मोह के कारण हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। खुली आँखों में, बंद आँखों में, नींद में चौबीस घंटे आपके भीतर सपने चलते हैं, आदमी विचारों के जाल में जी रहा है, आप सोचते हो मैं जगा हूँ लेकिन आध्यात्म के अर्थों में यह जागरण नहीं इसे कृष्ण ने सम्मोहन कहा है।
कृष्ण कहते हैं असम्मोह मैं हूँ, जो सम्मोहन नहीं वह असम्मोह होता है यानि जागरण।
भगवान कहते हैं जो नींद में भी जागा हुआ है, वही योगी है और वह मैं हूँ।
क्षमा: भगवान कृष्ण की भाषा में क्षमा का मतलब यह नहीं कि आपको किसी पर क्रोध आया और आपने उसको क्षमा कर दिया तो वह क्षमा हो गया, यह क्षमा तो मनुष्य की बाजार की क्षमा है, कृष्ण की क्षमा का अर्थ है मन की ऐसी दशा जहाँ क्रोध जन्मता ही ना हो, बड़ी कमाल की बात है कि हमें क्रोध इसलिए आता है क्योंकि क्रोध हमारे भीतर है सदा ही, जब आपको कोई गाली देता है तो इस गलतफहमी में मत पड़ना कि उस व्यक्ति ने आपको क्रोध दिला दिया उसने तो क्रोध को बाहर लाने का काम किया है।
जैसे किसी कुएँ में व्यक्ति ने बाल्टी के रस्सी बांध कर कुएँ में डाली और बाहर खिंची अगर बाल्टी भरकर कुएँ से बाहर आई तो आप यह तो नहीं कहोगे कि उस व्यक्ति ने कुएँ में पानी भर दिया, उस व्यक्ति ने तो बाल्टी डाली थी कुएँ में पानी था इसलिए भरकर बाहर आ गई, अगर वह व्यक्ति खाली कुएँ में बाल्टी डालेगा तो बाल्टी बड-बडा कर खाली वापिस लौट आएगी ऐसे ही आपके भीतर क्रोध होगा तो एक गाली में ही बाहर आ जाएगा।
बुद्ध, नानक, कबीर जैसे लोगों को जब कोई गाली दे देता था तो वह मुस्कुराते थे, उनके भीतर क्रोध था ही नहीं, जब खाली कुएँ में बाल्टी डालोगे तो खाली ही लौट आएगी जीसस को जब सूली पर लटकाया तब जीसस से कहा गया कि कोई अंतिम प्रार्थना करनी हो तो कर लो, तो वह प्रार्थना करते हैं कि हे परमेश्वर इन सब को क्षमा कर देना, इन सब को ज्ञान नहीं कि यह क्या कर रहें हैं, आप विचार करें इस बात का कि गाली नहीं सूली डाली गई है भीतर और वह व्यक्ति कहता है इन्हें क्षमा कर देना, आप समझो इस बात को कि भीतर क्रोध होगा तो क्रोध निकलेगा और भीतर क्षमा होगी तो क्षमा निकलेगी।
आप क्रोध करके क्षमा माँगते हो तो उस माफी को कृष्ण की क्षमा मत समझना, वह हमारे बाजार की क्षमा है, अपने भीतर क्रोध ना रहना ही कृष्ण की क्षमा है।
सत्य मैं हूँ: अध्याय दो के सोलहवें श्लोक में कृष्ण ने कहा कि असत् वस्तु की यहाँ सत्ता नहीं और सत् का अभाव नहीं यानि यह सम्पूर्ण प्रकृति असत्य है, नाशवान है, क्षण-क्षण यहाँ सब बदल रहा है, पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, जीव-जन्तु सब चल और अचल असत्य है यह संसार तो मन का स्वप्न है, यहाँ दिखाई देने वाली कोई भी वस्तु सत्य नहीं है। इस असत्य के पीछे गहरे में एक ही सत्य है, वह परमात्मा है, वह निर्लेप और निर्गुण है, वह सर्वत्र है उसका अभाव नहीं, जिस से यह सम्पूर्ण संसार रचा गया है उसे कृष्ण कहते हैं वह सत्य मैं हूँ।
दम-सम: इन्द्रियों का या मन का निग्रह (वश में करना निग्रह होता है) कोई जबरदस्ती नहीं है तत्वज्ञान विधियाँ है, इसे ख्याल में रखें यह ज्ञान की विधियाँ हैं, इन्द्रिय-मन से लड़ाई का सवाल नहीं, यह तो समझ का सवाल है, जो भी व्यक्ति मन से लड़ेगा, वह कभी मन का मालिक नहीं हो सकता, जो व्यक्ति मन को समझेगा ज्ञान से, वह मन का मालिक उसी क्षण हो जाएगा।
इच्छाओं का दमन नहीं, समझ चाहिए, लेकिन मनुष्य लड़ता रहता है इच्छाओं को दबाने में, किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो वह भीतर क्रोध दबाता रहता है, बड़े बुजुर्गों से गुरूओं व शास्त्रों में पढ़ा है, क्रोध अच्छा नहीं क्रोध बुरा है, जब भी क्रोध आता है, दबा लेते हैं, दबाया हुआ भीतर पहुंच जाता है अचेतन में, फिर आपके भीतर रोम-रोम में समा जाता है, धीरे-धीरे आपके स्वभाव में जहर की तरह फैल जाता है।
कृष्ण के कहने का मतलब है ना क्रोध करना है और ना दबाना है, उस इच्छा को या क्रोध को विलीन (साफ) कर देना है ज्ञान के द्वारा, ध्यान के द्वारा, क्रोध जब आए तब वह क्षण ध्यान का है, समझे उस क्रोध को बीच सड़क पर हो तो भी आँखें बंद कर लें एक किनारे पर बैठ कर ध्यान लगाएँ कि भीतर क्या हो रहा है, लोग शायद आपको पागल समझें लेकिन आप पागल नहीं हो, क्योंकि जो व्यक्ति क्रोध को जान लेगा वह सब पागलपन से ऊपर उठ जाता है। जब वासना के विचार आपको पकड़ें, तब ठहर जाएँ ध्यान करें उन विचारों पर उस वासना को आप पहचाने कि भीतर कौन-सी ऊर्जा इतना धक्का दे रही है, कि आप पागल हुए जा रहे हैं।
ऐसे अपने खुद के विचारों के आप दृष्टा बन गए तो आप बहुत जल्दी उस ज्ञान को प्राप्त हो जाएँगे, जिस ज्ञान में इंद्रिय दम, मन सम आसानी से फलित हो जाते हैं, कृष्ण कहते हैं वह भी मैं ही हूँ।
सुख-दुख: मन के अनुकूल परिस्थितियों के प्राप्त होने पर मन में जो प्रसन्नता होती है वह सुख है, मन के प्रतिकूल प्राप्त होने पर मन में अप्रसन्नता होती है वह दुख है जिसको दुःख में भी परमात्मा दिखाई पड़े, उसके लिए संसार में कोई दुःख नहीं रह जाता। क्योंकि दुःख का मतलब तभी तक है, जब तक हम दुःख से बचना चाहते हैं भागना चाहते हैं। हमारे जीवन में दुःख से बचने की और सुख को पकड़ने की इच्छा होती है, लेकिन परिणाम क्या है, परिणाम इतना है कि दुःख से बचने को सोच-सोच कर मनुष्य अपने जीवन में दुःख भर लेता है, सुख तो कहीं मिलता ही नहीं। कृष्ण कहते हैं सुख-दुःख दोनों ही मैं हूँ।
उत्पत्ति-विनाश: एक हजार चतुर्युगी बीतने पर सम्पूर्ण ब्रह्म की दोबारा रचना उत्पत्ति है और एक हजार चतुर्युगी का एक दिन ब्रह्म के बीतने पर जब प्रलय होती है वह विनाश कहा जाता है (जन्म उत्पत्ति है, मृत्यु विनाश है) अध्याय 7 का श्लोक नं. 17 पढ़ें।
भय-अभय: संसार के भोग की इच्छा वालों को उस सुख के खोने का भय होता है और जो कर्मयोगी परम मार्ग पर चलता हुआ लोक हित के लिए कार्य करता है, खुद सुख भोग से वैराग्य को प्राप्त योगी अभय रहता है।
अहिंसा: अपने, तन, मन, वाणी से किसी भी व्यक्ति को दुख न देना अहिंसा है।
समता: सुख दुख, गर्मी सर्दी, मान अपमान, अनुकूल प्रतिकूल, घटना आदि परिस्थिति के प्राप्त होने पर भी जो स्थिर रहे उसको समता, स्थिरता, समबुद्धि कहते हैं।
सन्तोष: धन की ज्यादा जरूरत होने पर भी कम मिले, उसमें सन्तोष करना, मिले यह भी इच्छा का ना रहना, अर्थात कम मिले या ज्यादा मिले या ना मिले सब परम प्रभु की मर्जी समझकर हर हाल में प्रसन्न रहना ही सन्तोष है।
तप:कर्त्तव्य कर्म को अपने स्वधर्म से करते हुए जीवन में कष्ट आए उनको सहन करना ही तप है।
दान:फल की इच्छा ना रखकर, समय, स्थान, व्यक्ति देखकर जरूरत मंद को प्रसन्नतापूर्वक अपनी शुद्ध कमाई से दिया हुआ सहयोग दान कहलाता है।
यश-अपयश: मनुष्य के अच्छे आचरण और गुण को लेकर नाम प्रसिद्धि आदि होती है वह यश है, मनुष्य के बुरे, आचरण और गुणों को लेकर संसार में जो नाम की निन्दा होती है, उसको अयश (अपयश) कहते हैं।
प्राणियों के ये अलग-अलग भाव मेरे से ही होते हैं, सबको आधार और तेज मुझ परमेश्वर से ही मिलता है अर्थात तत्व से सबके मूल में मैं ही हूँ। यह इस तरह से अनन्त परमात्मा की लीला है, लीला अनन्त है परमात्मा एक है।