द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्।।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजयः।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः।।
अर्थ छल करने वालों में जुआ और तेजस्वियों में तेज मैं हूँ, जीतने वालों की विजय मैं हूँ। निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्विक मनुष्यों का सात्विक भाव मैं हूँ।
वृष्णि वंशियों में कृष्ण और पांडवों में अर्जुन मैं हूँ। मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 36-37
छल करने वालों में जुआ हूँ: जीवन भर हम कोशिश करते हैं, जो पाने की उसे हम कभी पा नहीं सकते, हर बार यही लगता है कि बस अभी मिलेगा, लेकिन हर बार निशाना चूक जाता है, ऐसे भागते-भागते एक दिन मृत्यु का क्षण आ जाता है, मृत्यु के क्षण में आदमी अपने खाली हाथ पाता है कि जो भी चाहा था वह कुछ भी नहीं मिला, सिर्फ अपनी वासनाओं की राख ही अपने हाथ रह जाती है। मृत्यु के वक्त जो पीड़ा है, वह मृत्यु की नहीं, वह पीड़ा व्यर्थ गए जीवन की होती है।
जुए की एक खूबी है वह खूबी यह है कि जुए में कोई जीतता नहीं, जीतता हुआ दिखाई पड़ता है लेकिन जीतता नहीं यही जुए का छल है, हरेक मनुष्य जीतने की इच्छा से पासे-पत्ते फेंकता है
हर एक को लगता है कि जीत पक्की है, लेकिन जुए में कोई जीतता नहीं, जीतते हुए मालूम पड़ते हैं, वे जीतने वाले और बड़ी हार की तैयारी कर रहें हैं, जुए में जो हारता है, वह सोचता है इस बार हार गया अगली बार निश्चित ही पीछे के लगे पूरे कर लूँगा, फिर वह और हारता चला जाता है और कभी जीत भी जाता है तो और बड़ी हार की तैयारी कर रहा है और कोई जीतता है वह सोचता कि मुझको कोई हरा नहीं सकता वह और बड़ी हार की तैयारी कर रहा है, जुआ हमेशा चलता रहता है उसमें सभी हारने वाले सिद्ध होते हैं, इसलिए कृष्ण कहते हैं छल करने वालों में मैं जुआ हूँ।
जीवन शुद्धतम छल है, इसमें कोई जीतता नहीं आखिर में सबके हाथ खाली रह जाते हैं, खेल बहुत चलता है, पूरे जीवन कभी हारता है तो कभी जीतता है, धन-दौलत सब जीतने के बाद भी मृत्यु के क्षण हाथ खाली रह जाते हैं, आखिर में जीतता कोई नहीं सिर्फ पूरे जीवन जीतने और हारने की दौड़ में लगे रहते हैं आखिर में सभी लोग टूट जाते हैं, बिखर जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि एक आदमी जहाँ खड़ा है या बैठा है उतनी जगह पर आज से पहले ग्यारह कब्र बन चुकी है, इतने आदमी अब से पहले इस पृथ्वी पर जन्म चुके हैं, उनके भी झगड़े थे उनकी भी अकड़ थी, वह भी धनवान और अहंकारी थे, उनके भी विवाद थे, उनको भी मोह, प्यार, इच्छा थी, वह सब आज खो गए, आज उनका कोई विवाद नहीं, कल हमारा भी कोई विवाद नहीं होगा।
कृष्ण कहते हैं छल करने वालो में जुआ हूँ, इसलिए जुआ जिन्दगी का प्रतीक है, सारी जिन्दगी जुआ है, यहाँ खेल चलता रहता है लोग जीतने के लिये दौड़ते रहते हैं लास्ट में खेल यानि छल ही बचता है खेलने वाले इस जीवन के जुए में आखिरी क्षण में सब हार जाते हैं।
जुआ अकेले नहीं खेला जा सकता, उसमें दूसरे की जरूरत पड़ती है, इसलिए जो व्यक्ति ध्यान के अकेलेपन को प्राप्त हो जाता है, वही जीवन के जुए से बाहर होता है।
छल करने वालों का जुआ, तेजस्वियों का तेज अर्थात कुछ लोग चेहरे की चमक को तेज मानते हैं। तेज वह होता है जिसको देखकर सब प्राणी वैसा ही करने लग जाए जैसे अच्छे कार्य आदि।
जीतने वालों की विजय और निश्चय करने वालों की स्थिरता, मनुष्यों का सात्विक भाव (परमात्मा के भाव) मैं हूँ।
यादवों में मैं यानि श्री कृष्ण, और पाण्डवों में तू यानि अर्जुन, मुनियों में वेदव्यास जी और कवियों में कवि शुक्राचार्य भी मैं हूँ।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि दूर से विष्णु फिर सूर्य फिर नजदीक आते-आते कहाँ वृष्णिवंश में मैं तेरा सखा कृष्ण और पाण्डवों में तू अर्जुन, भगवान कहते हैं दूर से दूर पास में तेरे सामने मैं और तेरे भीतर जो आत्मा है वह मैं ही हूँ।