कृष्ण ने बताया नदियों में सबसे पवित्र नदी गंगा है और वही मैं हूँ।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।
अर्थ अर्जुन सम्पूर्ण सृष्टि के आदि मध्य और अंत मैं हूँ। विद्याओं में अध्यात्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व निर्णय के लिए किए जाने वाला वाद मैं हूँ।
मैं अक्षरों में अकार हूँ ! समासों में द्वन्द्व समास मैं हूँ, अक्षयकाल सब ओर मुख वाला धाता (सबका पालन पोषण करने वाला) मैं ही हूँ।
व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 32-33
सम्पूर्ण सृष्टि के आदि, मध्य, अन्त मैं ही हूँ। शिक्षा में अध्यात्म शिक्षा मैं हूँ, शास्त्रों पर तत्व से किये जाने वाले वाद मैं हूँ।
आध्यात्म विद्या मैं हूँ: विद्याओं में आध्यात्म विद्या मैं हूँ इस सूत्र को लेते हैं, आध्यात्म-विद्या वह विद्या है जिससे हम स्वयं को जानते है, पहले के समय में गुरु शिक्षा देते थे गुरुकुल तक्षशीला आदि में वहाँ राजा के लड़के ही पढ़ते थे उनको संसारिक ज्ञान से ज्यादा आध्यात्म ज्ञान दिया जाता था।
कहते हैं कि नानक जी जब पहले दिन स्कूल गए तब मास्टर जी ने कहा कि नानक कुछ फट्टी (तख्ती या स्लेट) में लिखकर लाओ तब नानक जी ने फट्टी पर एक ओंकार लिख दिया तब मास्टर ने पूछा यह क्या है, तब नानक जी ने कहा संसार की पढ़ाई का पहला अक्षर ही बँधन में डालता है और यह आध्यात्म का शब्द बँधन से मुक्त करता है, तब पान्दे ने यानि मास्टर ने कहा नानक तुमने यह शब्द कहाँ से सीखा तब नानक जी ने कहा कि मैंने इसको गीता से सिखा है।
जिसने संसार की शिक्षा में सब जान लिया और खुद को ना जाना तो उसने कुछ भी नहीं जाना और जिसने कुछ भी ना जाना संसार का ज्ञान, परन्तु खुद को जान लिया उसने सब जान लिया, क्योंकि जीवन का परम आनंद है वह खुद को जानने से ही घटित होता है। जिसने खुद को जान लिया उसने मृत्यु के पार भी जान लिया, संसार को जो हमने जाना है वह सब पराया है वह यहीं पड़ा रह जाएगा, जो हमारे साथ जाएगा वह खुद का बोध है।
मृत्यु के पार जिसे न ले जाया जा सके उसे हम ज्ञान नहीं मानते, हम तो ज्ञान उसे मानते हैं आग की लपटों में जब शरीर भी जल जाए, तब भी मेरा ज्ञान ना जले, आग मेरे ज्ञान को ना जला सके, मृत्यु भी ज्ञान को नष्ट ना कर सके, तो ही ज्ञान है। अन्यथा उस ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं। जीवन में कभी चुनाव करना हो कि कौन-सी शिक्षा पर चलूँ तो परम विद्या ही चुनने जैसी है, सारी ’विद्याएँ छोड़ी जा सकती है क्योंकि और सब कुछ पाकर भी पाने जैसा नहीं।
रामकृष्ण दूसरी कलास तक पढ़े, शास्त्र ठीक से पढ़ नहीं सकते थे बातें जो करते वह सब ग्रामीण ही थी, लेकिन वह उस विद्या को जानते थे जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं कबीर अनपढ़ थे फिर भी ज्ञान आज भी ना जला, नानक, पढ़े लिखे नहीं थे, मोहमद भी अनपढ़ थे, लेकिन वह सब वो जानते थे जो कृष्ण कहते हैं, कि मैं सब विद्याओं में परम विद्या हूँ।
- स्वर और व्यंजन दोनों में अकार मुख्य है अकार के बिना व्यंजनों का उच्चारण नहीं होता।
- दो से अधिक शब्दों को मिलाकर एक शब्द बनता है उसको समास कहते हैं, यदि दोनों शब्द प्रधान है तो वह द्वन्द्व समास होता है।
- जिस काल का कभी नाश नहीं होता, अर्थात काल का भी काल यानि महाकाल, काल अतीत, उसको अक्षय काल कहते हैं। अक्षय काल रूका हुआ है और सम्पूर्ण ब्रह्म का काल चल रहा है जैसे सागर अपनी जगह ही स्थिर रहता है और उस सागर में काल रूप से लहरें चलती रहती हैं, लहरों के चलने से सागर नहीं चलता, सागर वहीं रहता है अपनी जगह स्थित सिर्फ लहरें ही चलती है, ब्रह्म का काल चलता है लहर रूप में परमात्मा सागर की तरह स्थिर है।
- दसों दिशाओं में सब ओर मुख किए हुए सबको देखते हैं भगवान और सबके पालन पोषण करने वाले परम ईश्वर ही हैं।