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यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
अर्थ जो मुनष्य मुझे अजन्मा, अनादि और सम्पूर्ण लोकों का महान ईश्वर जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान है और सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 3 अजन्मा: सम्पूर्ण ब्रह्म जिसमें समाया है, वह अनन्त परमेश्वर अजन्मा है, हमेशा था हमेशा रहेगा। अनादि: आदि वह होता है जो समय की गणना में आए, परम अनादि है, वह काल की गणना नहीं काल का आदि और अंत होता है, परमात्मा तो काल (समय) का भी काल है यानि महाकाल, काल अतीत है। लोक महेश्वर:सम्पूर्ण ब्रह्म के लोकों के महान ईश्वर परम ही हैं। जो अजन्मा, अनादि, लोकमहेश्वर एक परम को निसन्देह स्वीकार कर लेता है, कि एक परमात्मा ही सम्पूर्ण ब्रह्म में व्याप्त है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान साधक है, ऐसे ज्ञान वाला योगी सम्पूर्ण पापों से मुक्त (आजाद) हो जाता है। कृष्ण कहते हैं अज्ञान से वही मुक्त होगा जो मुझे जानता है कि मेरा कोई जन्म नहीं होता। अगर पानी में रहने वाली मछली सोचे कि परमात्मा कैसे होंगे तो वह अपने मछली रूप में ही सोचेगी और अगर कोई पशु या पक्षी भी परमात्मा का रूप सोचे तो अपने रूप में ही सोचेंगे, ऐसे ही मनुष्य जब ईश्वर के बारे में सोचते हैं तो वह अपने जैसे रूप, आकार में सोचते हैं, तब मनुष्य भी परमात्मा को जन्म-मरण वाला शरीर ही सोचते हैं। आजकल तो कुछ ऐसे भी गुरू हैं जो इस सृष्टि के रचयिता को, निराकार की जगह नर आकार (रूप) में ही बताते हैं, वह कहते हैं इस सृष्टि को बनाने वाला ऊपर किसी लोक में अपना सिंहासन लगा कर नर रूप में बैठा है, और कुछ पंड़ितों ने तो हद कर दी वे कहते हैं इस सृष्टि को बनाने वाला शादी शुदा है उसके बच्चे भी हैं, मनुष्य अपनी बुद्धि से ऊपर कभी सोचता ही नहीं, ऐसे अज्ञान से वहीं मुक्त होगा जो परम को निराकार अनादि और अजन्मा मानता है। ईश्वर बनाने वाला नहीं, ईश्वर अस्तित्व है, वही है सर्वत्र उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं, जो हमें दृश्य संसार दिखाई पड़ रहा है, वह कोई ईश्वर से अलग नहीं, सागर का ही हिस्सा लहर बन गई है, अभी कुछ समय बाद फिर सागर हो जाएगी, लहर सागर से अलग नहीं, यह अपने हर तरफ दिखाई पड़ रहा है जगत, यह परमात्मा का ही हिस्सा है, परमात्मा से अलग नहीं। तुम ध्यान करो और खोजो अपने उस चहरे को जो जन्म से पहले कैसा था और मृत्यु के बाद कैसा रहेगा, आप जब ध्यान में जाओगे तो पाओगे कि यह सागर की ही लहर है जो सागर से उठ-उठ कर फिर सागर में ही वापिस शांत हो जाती है। कृष्ण कह रहें हैं अर्जुन को कि जब तक तू देख नहीं पा रहा कि इन सारी लहरों के भीतर एक ही सागर है, जब लहरें नहीं थी तब भी सागर था और जब यह लहरें गिर जाएगी तब भी सागर रहेगा, अगर तू इस अनादि, अजन्मा को देख ले तो फिर सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाएगा।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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