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पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः।।

महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः।।
अर्थ हे पार्थ पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति को मेरा स्वरूप समझो, सेनापतियों में कार्तिक और जलाशयों में सागर मैं हूँ। महर्षियों में भृगु और शब्दों में एक ओंकार मैं हूँ, सम्पूर्ण यज्ञों में ओम का जप यज्ञ और स्थिर रहने वाले में हिमालय पहाड़ मैं हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 24-25 1.बृहस्पति को अर्थात ये इन्द्र के गुरू,
देवताओं
के कुल पुरोहित हैं, इसलिए भगवान ने बृहस्पति को अपनी
विभूति कहा है।  
2.स्कन्द (कार्तिकेय) शंकर जी के पुत्र
हैं,
यह
देवताओं के सेनापति हैं, संसार के
सम्पूर्ण सेनापतियों में श्रेष्ठ हैं, भगवान ने
अपनी विभूति बताया।  
3.इस पृथ्वी पर जितने जलाशय हैं,
उनमें
समुंद्र सबसे बड़ा है और अपनी मर्यादा में रहने वाला तथा गम्भीर है,
सागर
परमात्मा की विभूति है।  
4.भृगु, अत्रि,
मरीचि
आदि महाऋषियों में भृगुजी बड़े भक्त, ज्ञानी और
तेजस्वी हैं,
प्रभु
की विभूति है इनका तेज।  
एक अक्षर
अर्थात ओम,
तीन
ध्वनियाँ है ‘अ’ ‘उ’ ‘म’ इन तीनों की इकट्ठी जो ध्वनि है वह है ओम। ‘ओ’ ‘उ’ ‘म’
तीनों मैन ध्वनियाँ है बाकी सभी ध्वनियाँ इन्हीं का विस्तार है,
तीन
मूल ध्वनियाँ है बाकी सभी इन्हीं का फैलाव हैं, तीनों
को मिलाकर बनता है ओम।   
विज्ञान कहता
है अग्नि से बना है संसार और अग्नि से निकलती है ध्वनियाँ।   
शास्त्र कहते
हैं कि अग्नि भी ध्वनि का एक प्रकार है विशेष रूप से पैदा की गई ध्वनि आग पैदा कर
देती है।    
इसलिए पुरानी
कहानियों में हमने सुना है कि तानसेन आदि का कि वह जब गाते थे तो अग्नि प्रकट हो
जाती थी उनकी मलहार ध्वनि से दीये जल जाते थे।   
ध्वानि से आग
पैदा हो या आग से ध्वनि पैदा हो, यह दोनों
लीला एक परम प्रभु में ही होती है।   
कृष्ण कहते
हैं कि समस्त अक्षरों में मैं आंेकार हूँ, आप
सारे शास्त्र छोड़ दो, सारे शास्त्र भूल जाओ कोई हर्ज नहीं
होगा। एक ओम याद रखना, एक ओम के साथ आपकी लयबन्द की स्थिरता
आ जाए और ऐसी घड़ी आ जाए की आप मिट जाओ और भीतर केवल ओम की ध्वनि रह जाए,
तो
समझ लेना आप परम धाम में प्रवेश कर गये क्योंकि शून्य जगत में प्रवेश करना निराकार
में प्रवेश करना माना जाता है, मोक्ष का
आखरी द्वार ओम है, यह ओम ध्वनि मनुष्य की पैदा की हुई
नहीं यह परम की ध्वनि है। जैसे कभी आप अँधेरी रात में सन्नाटे की आवाज सुनते हो,
जब
आपके सारे विचार शांत हो जाते हैं, भीतर के
सन्नाटे में जो आपके कानों में एक ध्वनि एक सीटी सी बजती सुनाई देती है,
वह
ओम का नाद है,
उस
ओम में प्रवेश किए रहना कृष्ण कहते हैं मुझमें प्रवेश करना है। फिर आगे भगवान कहते
है सब यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ। अपने कानों के भीतर जो ओम की ध्वनि सुनाई दे रही
है,
वह
हमारे भीतर हर क्षण बजती सुने, हम उसी में
एकाग्र होकर अपने भीतर ही भीतर ओम के अनन्य भाव से लयबंद हो जाएँ,
वह
एक ओम का निरन्तर जप अपने भीतर चलता ही रहे, वही
जप यज्ञ कृष्ण कहते हैं मैं हूँ यानि परम हूँ  
स्थिर रहने
वालों में जितने भी पर्वत है उनमें हिमालय तपस्या का स्थल होने से महान पवित्र है
और सबका अधिपति है, गंगा, यमुना
आदि जितनी भी तीर्थ स्वरूप पवित्र नदियाँ है वे सभी हिमालय से प्रकट होती है।
हिमालय पर्वत को परमात्मा ने अपनी विभूमि बताया है।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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