वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।
अर्थ मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 22
वेदों में सामवेद मैं हूँ: श्री कृष्ण ने यर्जुवेद, ऋग्वेद का नाम ना लेकर कहा है, वेदों में मैं सामवेद हूँ, इस सूत्र को आप अच्छे से समझ लें। सामवेद संगीत का वेद है, कृष्ण का व्यक्तित्व गीत जैसा है, कृष्ण को हम बिना बाँसुरी के सोच भी नहीं सकते, कृष्ण खुद एक संगीत है, मगर आप सोच रहे होंगे कृष्ण खुद तो संगीत प्रेमी है लेकिन यह बात अर्जुन को क्यूँ बता रहे हैं, वह तो योद्धा है और एक योद्धा का गीत संगीत से क्या संबंध, यह बात अलग मालूम पड़ती है अगर आप ऊपर से देखते हैं तो, लेकिन गहन अध्ययन करते हैं योद्धा का तो, जब कोई पूरा युद्ध में डूब जाता है, तो वह वैसे ही डूबता है, जैसे कोई संगीतज्ञ अपने संगीत में डूबता है, जैसे कोई नृतक अपने नृत्य में डूबता है, जब कोई योद्धा अपनी तीर, गदा या तलवार चला रहा होता है तो वह खुद नहीं होता, सिर्फ तलवार चलने का संगीत ही होता है ।
कृष्ण ने कहा सामवेद मैं हूँ, यह शब्द और शास्त्र की बात नहीं, यह तो गीत, संगीत, लय और नृत्य की बात है, कृष्ण कहते है वह मैं हूँ ।
इन्द्रियों में मन हूँ: मन भी एक इन्द्रिय है, पाँचों इन्द्रिय की केंद्रीय इन्द्रिय है मन, सारी इन्द्रियों का सार मन है। आँख देखती है, कान सुनता है, त्वचा से स्पर्श करते हैं, नाक से गंध आती है, जीभ से स्वाद आता है, यह सारी इन्द्रियाँ इकट्ठा करती है जो इन सारी इन्द्रियां का जोड़ होता है, इकट्ठा होता है उसका नाम मन हैं।
आँख देखती है और कान सुनते हैं, मन तय करता है कि जिसको देखा उसी को सुना है, क्योंकि आँख यह जोड़ नहीं कर सकती, आँख सिर्फ देख सकती है, आँख को पता नहीं चलता कि मैं जिसको देख रहा हूँ वह बोल भी रहा है बोलने का पता कान को चलता है, ऐसे ही कान को पता नहीं चलता कि जिसको मैं सुन रहा हूँ, उसको ही आँख देख रही है क्या, आँख और कान के बीच सेतू नहीं, क्योंकि कान सुन रहा है उस कान के आँख नहीं कि जिससे सुन रहा है उसी से देख भी लूँ, आँख भी देख सकती सुन नहीं सकती।
पाँचों इन्द्रियाँ अलग-अलग है मन इन्द्रियों का जोड़ है, अगर मन जोड़ ना करे तो आँख कुछ देखेगी, कान कुछ और सुनेगा, चलते वक्त पैर कहीं और जगह पड़ेंगे, कई बार आपका मन कहीं और होता है, तब आपको कितनी ही बार कोई बात पूछे वह शब्द सुनाई नहीं देते और कई बार आप कहीं बैठे हो और किसी दिशा में आपकी आँख हो, आपका मन कहीं और हो, आँखों के सामने कोई थोड़ी दूरी से कितने ही इशारे करे हाथ उठा-उठा कर, फिर भी आँख उसको देख नहीं पाती, वह व्यक्ति आपके पास आकर आपको आपके विचारों से निकाले और कहे कि कितनी देर से मैं आवाज़ लगाकर हाथ का इशार कर रहा हूँ, मेरी तरफ देख भी रहे हो, फिर भी बोल क्यों नहीं रहे हो, आप कहते हो अच्छा मैंने देखा नहीं मैं कुछ और सोच रहा था।
इन्द्रियाँ अपने-अपने अनुभव को मन में डाल देती हैं मन उन सब को इकट्ठा कर लेता है।
मन के बिना इन्द्रियाँ जी नहीं सकती, अगर शराबी का मन शराब से बेहोश हो जाये तो इन्द्रियां काम करना छोड़ देती हैं, शराबी का मन बेहोश हो और वह चल रहा हो तो पैर लड़खड़ाएँगे एक पैर कहीं जाएगा तो दूसरा कहीं, और बोलते वक्त बोलता कुछ और है निकलता कुछ और है, कहीं नहीं जाना होता वहाँ चला जाता है, जो काम नहीं करना होता वह काम कर बैठता है, मन के बगैर इन्द्रियाँ मर जाती हैं, मन सारी इन्द्रियों का सार है।
कृष्ण ने अर्जुन को आत्मा का ज्ञान दिया, वह ज्ञान अर्जुन को समझ नहीं आया, इसलिए थोड़ा दूर से समझाना शुरू कर रखा है, जैसे मन्दिर में भगवान की फोटो दिखानी है, उस से पहले मन्दिर कि दस सिढ़ियाँ पार करवा रहे हैं अर्जुन को।
अगर आपको लास्ट सीढ़ी तक पहुँचना है, तो आपको पहली सीढ़ी से ही शुरू करना पड़ेगा, फिर पहली सीढ़ी से अपना पैर दूसरी सीढ़ी पर लेकर जाना पड़ेगा, फिर दूसरी को, छोड़ना पड़ेगा, पहले अपना एक पैर दूसरी पर रखेंगे फिर दोनों पैर, फिर उसको भी छोड़ कर तीसरी पर जाओ, अगर आपको अंतिम की खोज करनी है, तो जो हमारे पास है उसको छोड़ कर आगे बढ़ते जाना होगा तभी अंतिम तक पहुँच पाओगे अंतिम को पार करके ही मन्दिर की प्रतिभा को देखा जा सकता है।
भगवान ने सबसे पहले कहा कि मैं विष्णु हूँ, फिर और नजदीक की बात की मैं सूर्य हूँ, फिर शरीर के इन्द्रियों कि बात की फिर कहा इन्द्रियों में मैं मन हूँ
कृष्ण के कहने का भाव है कि तुम इन्द्रियों को छोड़ो कम से कम वहाँ से तो हटो, कम से कम मन तक तो पहुँचो, इतना भी कम नहीं कि तुम जानो कि शरीर आँख, कान, नाक तुम नहीं हो, इनसे तो तुम देखते, सुनते हो इनसे जो देखता सुनता है वह तुम हो, भगवान कहते हैं पहले तुम इतना जान लो तो फिर यह भी जान लोगे कि मन भी तुम नहीं हो, मन को भी दृष्टा यानि साक्षी भाव से देखता है, वह तुम हो इसलिए कृष्ण ने तुरन्त अगला सूत्र लिया, वह इसलिए लिया की कहीं तुम अपने को मन ही ना मानकर बैठ जाओ।
कृष्ण कहते हैं इन्द्रियों में मैं मन हूँ, उसके तुरन्त बाद कहा, मन के पार जो चेतना है यानि जानने की क्षमता वह चेतना मैं हूँ
जो व्यक्ति जान ले कि चेतना मैं हूँ, उसने जो जानने योग्य था वह सब जान लिया, हमारे भीतर जो केन्द्र है सबसे गहरे में छिपा हुआ, वह चेतना है, चेतना ही सत चित आनंद है, सत्य को खोजो चेतन्य की झलक मिल जाएगी, इस संसार भोग की बेहोशी से बाहर निकल कर थोडी सत्य जानने का प्रयास करो, समबुद्धि योग में स्थिर होकर हर क्षण होश पूर्वक रहो, चलते समय भी जानते हुए चलो कि मैं चल रहा हँू, अपने भीतर ही भीतर होश में रहो कि अब दांया पैर उठा और अब बांया पैर उठा चलते-चलते आपको पता चलेगा कि यह तो शरीर चल रहा है मैं नहीं चल रहा। खाना खाते वक्त हर टुक को अपने मुँह में महसूस करें फिर खाना भीतर जाते महसूस करें, पानी पीते वक्त आँखें मूँदकर इस को महसूस करें हर बात का होश पूर्वक अनुभव करें आपको फिर अनुभव होगा कि मैं नहीं मरता यह तो शरीर मरता है मैं तो चेतना हूँ।