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न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।।
अर्थ मेरे प्रकट होने को ना देवता जानते हैं और ना महाऋषि, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महाऋषियों का आदि हूँ। व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 2 मेरे से प्राप्त किए हुए, प्रभाव, शक्ति, सामर्थ्य आदि से वे मेरे को पूरा कैसे जान सकते हैं, यानि वे नहीं जान सकते जैसे बालक जिस माँ से पैदा हुआ है, उस माँ के विवाह को और अपने शरीर के जन्म को नहीं जान सकता, ऐसे ही देवता और महर्षि मेरे से उत्पन्न (पैदा) हुए हैं अतः वे मेरे प्रकट होने को कैसे जान सकते हैं। परम में लीन हुऐ बगैर कोई भी जान नहीं सकते ऐसे ही देवता और महर्षि भगवान के आदि को, अन्त को, वर्तमान को और भगवान किस रूप में अवतार लेकर प्रकट होंगे। इस माप-तोल को नहीं जान सकते, कारण कि देवता और महर्षियों के उत्पन्न होने से पहले भी परमात्मा ज्यों के त्यों थे अब भी हैं और प्रलय होने के बाद भी रहेंगे। परम सत्य को तभी जाना जा सकता है, जिस दिन संसार का दृश्य भी टूट जाता है, उस दिन जानने वाला खुद भी अपने को भूल जाता है, जिस दिन जानने वाला भी शेष नहीं रहता, उस दिन तो लहर खो जाती है सागर में और खुद सागर हो जाती हैं। श्री कृष्ण ना तो देवता हैं और ना ही ऋषि कृष्ण की आत्मा परम में युक्त है अब वह कृष्ण नहीं अब वह परम ही है, वे परम में ही लीला कर रहें हैं। ऋषि और देवता कैसे जान सकते हैं परम को, कोई भी नहीं जान सकता, क्योंकि हम सब उसके हिस्से हैं, सागर तो बूँद को जान सकता है, बूँद सागर को जाने भी तो कैसे, जानने के लिए बूँद को भी सागर बनना पड़ता है। मनुष्य परम को कैसे जाने और अपना कल्याण कैसे करे, इसका उपाय आगे श्लोक में बताते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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