तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।
अर्थ उन नित्यनिरंतर मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करने वाले भक्तों को, मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे उनको मेरी ही प्राप्ति होती है।
उन भक्तों पर कृपा करने के लिए ही उनके आत्मभाव में रहने वाला मैं उनके अज्ञान, अंधकार को प्रकाश ज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
व्याख्यागीता अध्याय 10 का श्लोक 10-11
भगवान आगे कहते है उन (जो पिछले श्लोक नं. 8, 9 में बताया) हर रोज हर क्षण मुझमें लगे हुए और मेरा ध्यान सिमरण करने वाले भक्तों को मैं वह बुद्धियोग (सम साधना ध्यानयोग) देता हूँ, जिससे (बुद्धियोग से) उनको मेरी ही प्राप्ति होती है।
कृष्ण कहते हैं उन नित्य निरंतर मुझमें लगे हुऐ भक्तों को मैं बुद्धि योग देता हूँ हम निरंतर पर बात करते हैं, जैसे आप राम-राम या कृष्णा-कृष्णा जपते हो तो भी यह निरंतर भजन नहीं हुआ, क्योंकि दो बार राम-राम बोलने के बीच में समय का छोटा-सा अंतर आ ही जाता है, जैसे मैंने कहा राम-राम बीच में थोड़ी जगह छूट ही गई निरंतर का मतलब बीच में भी भगवान का बहाव बना रहें जैसे आप बहती हुई नदी को देखते हो। वह निरंतर बह रही है। निरंतर भक्ति तो अपने भीतर प्रभु का भाव बने रहने से ही होती है, सम होकर हर क्षण अपने भावो में प्रभु का चिंतन, मनन, ध्यान करना ही निरंतर भजना है।
हे अर्जुन उन भक्तों पर कृपा करने के लिए ही, उनके भीतर आत्म स्वरूप से स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजन्य अन्धकार को आत्मप्रकाश तत्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।
चाहे हजारों साल से किसी स्थान पर अँधेरा रहा हो, तो ऐसा नहीं की उस स्थान पर प्रकाश होने में भी हजारों साल लगेंगे, हजारों साल का अँधकार, माचिस या दीये की एक लौ से एक क्षण में प्रकाश कर देता है, दीये कि लौ जलाते ही अँधकार एक क्षण में ना जाने कहाँ चला जाता है। ऐसे ही परम प्रभु हजारों जन्मों के अज्ञान रूप अँधकार को एक क्षण में ज्ञान रूप दीपक से प्रकाशित कर देते हैं।
आज कोई भी मनुष्य कोई खोज या अच्छा काम करता है वह सब परम ही करने वाले हैं, मानव को तो बीच में यूँ ही अहंकार होता है जैसे कोई भी कार्य पूर्ण हुआ उस कार्य को करने का पहला विचार तो परमात्मा ने ही दिया था, जो अज्ञान का अँधकार, बुद्धि से साफ होकर, उसमें परम तत्व का ज्ञान होता है वह परमेश्वर ही देने वाले हैं।