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श्री भगवानुवाच 
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।
अर्थ हे महाबाहो ! मेरे परम वचन को तुम फिर से सुनों, जिसे मैं मुझमें अत्यन्त प्रेम रखने वाले तुम्हारे हित की कामना से कहूँगा। व्याख्या

गीता अध्याय 10 का श्लोक 1

श्री भगवान बोले-हे महाबाहो! अर्थात बड़ी-बड़ी भुजाओं वाले महाबाहो अर्जुन फिर से सुनो मेरे परम वचन को। परम अर्थात सबसे बड़ी सुप्रीम पावर को परम कहते हैं, परम नाम को ही परब्रह्म, परमात्मा, ओंकार, सचिदानन्दघन, परम गति, कल्याण, परमेश्वर, मुक्ति आदि नामों से पुकारा गया है। भगवान कहते हैं मेरे परम वचन को मैं मुझमें प्रेम रखने वाले, तुम्हारे हित की कामना से कहूँगा। सत्य की एक कसौटी होती है तर्क, जो तर्क से सिद्ध हो वह भी सत्य है, हर बात के विपरीत दूसरा भी तर्क-शब्द होता है जैसे सुख है तो दुःख भी उसके विपरीत है सर्दी है तो गर्मी भी है, सत्य है तो असत्य भी है सत्य की अंतिम कसौटी है, वह है आनंद, उस आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं होता है, परम एक सागर है सबसे बड़ा, बाकी तो सब लहरें हैं उस परम सागर की, तो कृष्ण कहते हैं अर्जुन को, कि तेरा अतिशय प्रेम है मेरे लिए, इसलिए मैं तुझे परम रहस्य कहूँगा। अतिशय अथार्त् अत्यंत आखिरी सीमा, जहाँ अति हो जाती है जब प्रेम अतिशय होता है, तो सोच विचार बंद हो जाता है और जहाँ सोच विचार बंद होता है, वहीं आत्मा के संवाद हो सकते हैं। अगर श्री कृष्ण को परम वचन कहने हैं तो अर्जुन की ऐसी अवस्था चाहिए, जहाँ सोच विचार बंद हो, जहाँ अर्जुन सुने तो जरूर परन्तु सोचे नहीं, जहाँ अर्जुन की बुद्धि खुली तो हो, लेकिन उसके सभी विचारों की बदलियाँ ना हो, यानि अर्जुन के पास अपने कोई सिद्धांत ना हो, अपनी कोई समझ ना रहे, शिष्य बनता ही तभी है कोई अपनी सोच को शून्य कर के गुरू के सिद्धांतों का पालन करे, उसी अतिशय विश्वास में समर्पण होता है। कृष्ण कहते हैं तेरे अतिशय प्रेम के कारण, मैं तुझे परम वचन कहूँगा, वह भी तेरी हित की कामना से। अर्जुन युद्ध के क्षेत्र में आ कर भी विजय की कामना ना रखकर अपना कल्याण चाहते हैं, जो परम प्राप्ति चाहते हैं वह परमात्मा में प्रेम रखने वाले हैं, जो परमात्मा में प्रेम रखते हैं, जैसे अर्जुन बार-बार कहते हैं कि मुझको वह ज्ञान कहिए जो कल्याण को देने वाला हो, ऐसे परम से प्रेम करने वाले तुझको मैं हित की कामना से कहूँगा। तुम्हारे भीतर मेरे प्रति प्रेम का भाव है और मेरे भीतर तुम्हारे हित का भाव है, इसलिए मैं विज्ञान सहित ज्ञान पुनः कहूँगा, जो मैंने सातवें और नवें अध्याय में कहा।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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