अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।
अर्थ वाह, देखो, हम वास्तव में बड़े भारी पाप करने का निश्चय कर बैठे हैं। हम राज्य और सुख के लालच में अपने प्रियजनों को मारने के लिए उत्सुक हो गए हैं।
अगर धृतराष्ट्र के पक्ष के लोग युद्ध में मुझे शस्त्र रहित देखकर भी मेरे प्राण ले लें तो वह मेरे लिए बेहतर होगा।संजय बोले - ऐसा कहकर शोकाकुल मन से अर्जुन धनुष बाण का त्याग करके युद्धभूमि में रथ के पिछले भाग में बैठ गए। व्याख्याराज्य और सुख यह दोनों अलग-अलग हैं। राज्य मिलने पर सुख मिले यह कोई जरूरी नहीं। सुख संसार के भोग से नहीं भीतर ईश्वर भाव से मिलता है, संसार के सारे सुख नाशवान हैं। आपने आज तक जो सुख लिया वह आज आपके पास कहाँ है। वह सुख समय के साथ निकल गया और आप आगे के सुख के लिए भाग रहे हो वह भी निकल जायेगा। इस जीवन का समय सांस की पहली अपान-प्राण से शुरू हुआ पल-पल समय बीतता ही जा रहा है। इस समय के कुछ पलों को जीने को आप सुख कहते हैं। यह समय तो निकल ही जायेगा सुख फिर छूट जायेगा। इसलिए उस सुख की खोज करो जो सनातन है, नित्य है, सत्य है।
अर्जुन कह रहे हैं कि हम जैसे समझदार व्यक्ति भी राज्य व सुख के लोभ में आकर अपने ही परिवार को मारने के लिए तैयार हो गए। भोग के लोभ में महापाप करने को तैयार हो गए, अर्जुन यह कह रहे हैं मैं युद्ध नहीं करूंगा चाहे धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि मुझको मार ही क्यूँ ना दें। इस युद्ध को करके पाप करने से तो अच्छा है वह शस्त्र हाथ में लिये मेरे बिना युद्ध करने पर भी भले ही मुझे मार क्यूँ ना दें वह मरना इस युद्ध से ज्यादा हितकारक होगा।
ऐसा कहकर अर्जुन रथ के मध्य भाग में तीर धनुष त्याग कर बैठ गया। भीतर शोका कुल मन हो गया। अर्जुन पहले शोक मोह में नहीं था, जब भगवान ने कहा था ‘‘इन कुरूवंशियों को देख’’, तब अर्जुन के मन को मोह पकड़ गया।
‘‘ जय श्री कृष्णा ’’