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यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन।।
अर्थ यद्यपि ये लोभ के कारण अपना विवेक खो चुके हैं ।और कुल का नाश करने से होने वाले दोष और मित्रों के साथ द्वेष करने से होने वाले पाप को नहीं देख सकते , तो भी हे जनार्दन ! कुल का नाश करने से होने वाले दोष को ठीक से जानने वाले हम लोग यह कैसे नहीं समझ सकते कि हमें इस पाप से कैसे बचना चाहिए? व्याख्याइतना मिल गया इतना और मिल जाए फिर मिलता ही रहे ऐसे मकान, जमीन, धन, अधिकार आदि की तरफ बढ़ती हुई वृत्तियों का नाम ही लोभ है। ऐसी लोभ वृत्ति के कारण इस दुर्योधन की विवेक बुद्धि लुप्त हो गई है। जिससे वे यह विचार नहीं कर पा रहे हैं कि जिस राज्य के लिए हम इतना बड़ा पाप करने जा रहे हैं, वह राज्य हमारे साथ कितने दिन रहेगा और हम कितने दिन रहेंगे। हमारे रहते हुए यह राज्य चला जाएगा तो क्या दशा होगी, राज्य के रहते शरीर चला गया तो क्या दशा होगी। क्योंकि लोभ छा जाने पर इनको राज्य ही राज्य दिख रहा है। कुल नाश करने से कितना भयंकर पाप होगा वह नहीं दिख रहा। यह लोग तो राज्य भोग में पागल होकर मित्रों, भाईयों को मारने के लिए पाप करने को उतावले हो रहे हैं। कुल के नाश का दोष नहीं देख रहे हैं। इनकी इन बातों की तरफ नजर नहीं जा रही है। तब भगवान को अर्जुन कहते हैं हम तो कुल के नाश का दोष देख रहे हैं फिर क्यों ना हम इस पाप से छूटने का विचार करें। ‘‘कुल का क्षय होने से जिन दोषों को हम जानते है वह यह है’’ आगे के 5 श्लोक
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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