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आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।
अर्थ गुरु, पिता, पुत्र, और वैसे ही दादा,मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं, ये सब मुझे मारना चाहते हैं परन्तु फिर भी मैं इनपे प्रहार नहीं करना चाहता और हे मधुसूदन अगर मुझे तीनो लोकों का राज्य भी मिलता हो तो भी मैं इन्हे नहीं मारना चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो मैं इन्हे मारूँ ही कैसे ? व्याख्याहमारा इन कुटुम्ब के आचार्य से हमारी विद्या का सम्बन्ध है। ऐसे पूज्य आचार्यों की तो मुझे सेवा करनी चाहिए न कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिए। आचार्य के चरणों में तो अपने आप व प्राणों को समर्पित कर देना चाहिए यही हमारे लिए उचित है। पिता का ही तो रूप हमारा यह शरीर है। शरीर से हम उनके स्वरूप होकर क्रोध लोभ में आकर उनको कैसे मारें। पुत्रों का पालन करना हमारा धर्म है और हम ही उनको मारेंगे तो यह क्या राज्य सुख होगा। पितामह तो पिता के भी पिता है उनकी तो हमें सेवा करनी चाहिए। मामा तो माँ जिसने हमें जन्म दिया उनके ही भाई है मामा को दो बार माँ माँ बोला जाता है। ससुर पत्नी के पिता होने से हमारे भी पिता हैं इनको कैसे मारें, पौत्र हमारे पुत्रों के पुत्र हैं वे तो पुत्रों से ज्यादा पालन पोषण करने योग्य हैं। बाकि जितने भी सम्बन्धी है, उनको कैसे मार सकते हैं। इनको मारने से अगर हमें त्रिलोकी का राज्य मिल जाए तो भी इनको मारना उचित नहीं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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