निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।
अर्थ मैं देखता हूँ कि विपरीत हालात के कारण क्या हो रहा है, हे केशव। मैं अपने स्वजनों को मारकर युद्ध में विजय पाने के पथ में कोई लाभ नहीं देखता। व्याख्यामैं लक्षणों को विपरीत देख रहा हूँ अर्थात किसी भी कार्य की शुरूआत उत्साह से की जाये उसके परिणाम भी उतने ही अच्छे आते हैं। अगर कार्य के आरम्भ में ही उत्साह भंग हो जाता है उसका परिणाम अच्छा नहीं आता। अर्जुन भगवान को कह रहे हैं कि मन जलना, शरीर में कंपकपी होना, गला सूख जाना आदि जो भी लक्षण हो रहे हैं यह सब शगुन मुझको ठीक नहीं लग रहे, मैं इनको विपरीत देख रहा हूँ। युद्ध में अपने कुटुम्बों को मारने से क्या लाभ होगा। जो अपने कुल का नाश करता है उसको पाप ही लगता है जिससे नरक की ही प्राप्ति होगी। इसलिए अर्जुन कह रहे हैं कि शगुन भी अच्छा नहीं व इस युद्ध से हमको पाप ही लगेगा और संसार मात्र के लिए भी युद्ध हितकारक नहीं दिखता।
अर्जुन के शरीर की घटना पर श्री कृष्ण बिलकुल भी ध्यान नहीं देते, ना नाड़ी देखते, ना थर्मामीटर लगाते, अगर उनकी जगह आप होते तो उनके शरीर को ही पकड़ते और कहते कि शरीर की हालत से तो लग रहा है कि तेज बुखार है या कोरोना हो गया है जल्दी से हॉस्पिटल ले के जाते। कृष्ण उसके शरीर की फिक्र ही नहीं करते कि अर्जुन के शरीर को क्या हो रहा है, वह तो उसकी चेतना की फिक्र करते हैं कि उसकी चेतना को क्या हो रहा है।
आज के समय में मनुष्य-जाति मानसिक रोग से ग्रस्त हैं, मन के विचारों का उनके शरीर पर भी प्रभाव पड़ रहे हैं, आजकल डॉक्टर शरीर का इलाज कर रहे हैं, शरीर का इलाज हो जाता है और बीमार, बीमार ही बना रहता है उसके मानसिक स्थिति का इलाज ही नहीं हो पाता। कृष्ण अर्जुन के शरीर की चिंता नहीं करते वह तो मन का इलाज करते हैं, कृष्ण गीता मानव-जाति का पहला मनोविज्ञान है, श्री कृष्ण से बड़ा साइकोलॉजिस्ट दुनिया में ना आया और ना ही आएगा।