अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते। ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः। ।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते। ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः। ।
अर्थ अर्जुन बोले - हे कृष्ण युद्ध के लिए तैयार इन स्वजनों को अपने सामने उपस्थित देखकर मेरे अंग कमजोर हो रहे हैं, मुख सूख रहा है तथा मेरे शरीर में कंपकंपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े हो रहे हैं।मेरे हाथ से गांडीव (अर्जुन का धनुष )गिर रहा है और त्वचा भी जल रही है। मेरा मन भ्रम से ग्रषित हो रहा है और मैं स्थिर नहीं रह पा रहा हूँ | व्याख्यावैसे तो अर्जुन क्षत्रिय धर्म का है, उसका स्वभाव युद्ध करने का ही है लेकिन अपने कुटुम्ब को अपने सामने युद्ध की इच्छा से आये देख कायरता को प्राप्त हो गया। कारण यह है कि जिन बच्चों के साथ बचपन में खेला और जिन दादा, मामा, गुरूओं की गोद में खेल कर बड़ा हुआ उनको ही अपने सामने उपस्थित देखकर अर्जुन का शरीर व सम्पूर्ण अंग स्थिर हो गए है। जब व्यक्ति को जिस भी व्यक्ति से मोह हो और उसको ही अपने हाथों से मारना पड़े तो मुख सूख जाता है। शरीर में कंपकपी आ जाती है और शरीर के रोगटें खड़े हो जाते हैं। यह मनुष्य का मनोविज्ञान है यही अर्जुन के साथ हुआ। हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है। हाथ की शक्ति शून्य हो गई है कि उनसे गांडीव धनुष को चढ़ाकर बाण चलाना तो दूर उसको पकड़े भी नहीं रख सकता। वह मेरे हाथ से गिर रहा है, मोह चिन्ता ने मन में इतनी जलन कर दी है कि जिसके कारण शरीर की चमड़ी भी जलने लगी है और मन एक जगह स्थिर भी नहीं हो रहा यानि मन भ्रमित सा हो रहा है। जिस कारण मैं यहाँ युद्ध भूमि में खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहा हूँ ऐसा लगता है मूर्च्छित होकर गिर पडूंगा।
अर्जुन युद्ध को देख कर पीछे नहीं हट रहा, युद्ध करना तो अर्जुन का स्वभाव है क्योंकि वह क्षत्रिय है, अर्जुन युद्ध करने से इस लिए पीछे हट रहा है कि सामने युद्ध करने वाले परिवार और संबंधी है, अगर सामने परिवार के लोग ना होते तो अर्जुन भेड़-बकरियों की तरह लोगों को काट सकता था, जब अपनों को काटना पड़ रहा है तब अर्जुन के अंग शिथिल हो रहे हैं।
जब पड़ोस में मृत्यु होती है तब मन को छूती नहीं बस इतना ही कहते हैं बेचारा मर गया, जब घर में मृत्यु होती है तब मन को छूती है, अपना कोई मरता है तो हम भी मरते हैं, हमारा भी हिस्सा मरता है, हमारे मन के भी किसी कोने को उसने भर रखा था।
पत्नी मरती है तो पति भी मरता है, सच्चाई तो यह है कि पत्नी के साथ ही पति पैदा हुआ था, उसके पहले पति नहीं था, बेटा मरता है तो मां भी मरती है, क्यूंकि मां बेटे से पहले मां नहीं थी, मां बेटे के जन्म के साथ मां हुई थी, जब बेटे का जन्म होता है तो दूसरी तरफ मां का भी जन्म होता है, जब बेटा मरता है दूसरी तरफ मां भी मरती है जिसको हम अपना कहते हैं उनसे हम जुड़े हैं वो मरते हैं तो हम भी मरते हैं।
अर्जुन ने देखा सब अपने ही सामने खड़े हैं तो शरीर में कंपकपी आ गई उनके मरते ही अर्जुन भी मरता है कारण कि हमारी ‘मैं’ अपने ही तो होते हैं जैसे मेरा भाई, मेरा पिता, मेरी माता, मेरे बच्चे, मेरी पत्नी, अगर मेरे सब विदा हो जाए तो मैं भी खो जाऊंगा कारण कि सबका जोड़ ही तो ’मैं’ होता है
मनुष्य सारे जीवन कमाता है वह अपने लिए कम अपनों के लिए ज्यादा होता है, हम जो घर बनाते हैं वह अपने लिए कम अपनों के लिए ज्यादा होता है, अपने साथ रहेंगे अपने प्रशंसा करेंगे। अगर इस दुनिया का सबसे अच्छा घर आपके पास हो और अपने ना रहे, मित्र ना रहे, शत्रु ना रहे, तो अचानक आप पाओगे घर झोंपड़ी से बदतर हो गया। आपको बड़े से बड़ा सिंहासन मिल जाए और नीचे लोग खो जाए तो आपके लिए सिंहासन मजाक बन जाता है।
ऐसे ही अर्जुन को दिखाई पड़ रहा है कि मेरे सब मिट जाएंगे तो मेरे लिये राज्य, सुख, धन का क्या अर्थ रह जाएगा, सब अपनो को सामने देख अर्जुन चिंता में पड़ गया है।
चिंता को चिता के समान कहा गया है केवल एक बिन्दु ही अधिक है चिंता जीवित पुरूष को जलाती है और चिता मरे पुरूष को जलाती है।