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तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृ़नथ पितामहान्।

आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा।
श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान्।
कृपया परयाविष्टो विषमदन्निदमब्रवीत् ।।
अर्थ उसके बाद पार्थ ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित पिताओं, पितामहों, आचार्यों, मामाओं, भाईयों, पुत्रों, पौत्रों,मित्रों, ससुरों और हितैषियों को भी देखा। अपनी - अपनी जगह पर स्थित उन सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कौन्तेय अत्यन्त व्याकुलता से शोकग्रस्त होते हुए ऐसा बोले। व्याख्याकहने का तात्पर्य है कि पितामह, गुरू, सभी परिवार के लोग साले व जयद्रथ बहनोई तथा अन्य सभी सम्बन्धियों को दोनों सेना में स्थित देखा, अर्जुन के मन में विचार आया युद्ध में चाहे इस पक्ष के लोग मरें चाहे उस पक्ष के, नुकसान हमारा ही होगा। सम्बन्धी तो हमारे ही मारे जाएंगे ऐसा विचार आने से अर्जुन की युद्ध की इच्छा मिट गई और मन में कायरता आ गई। कायरता पहले नहीं थी श्री कृष्ण को पता था अभी आई है लेकिन कृष्ण को यह भी पता था कि यह कायरता ठहरेगी नहीं ज्यादा समय तक क्योंकि शूरवीरता अर्जुन का स्वभाव है वह तो रहेगा ही। युद्ध के परिणाम में कुटुम्ब की, कुल की, देश की क्या दशा व दिशा होगी इस भाव को लेकर अर्जुन बहुत दुखी हो रहे हैं और उस अवस्था में ये वचन बोलते हैं।
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अपने आप को गीता परमरहस्यम् की गहन शिक्षाओं में डुबो दें, यह एक कालातीत मार्गदर्शक है जो आत्म-खोज और आंतरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

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